आदर्श बदला

आदर्श बदला

सुनहरा प्रभात था। प्रकृति की छटा अनुपम बनी थी। वृक्षों पर कोयलें चहक रहीं थीं। खेतों में फसलों पर ओस के कण ऐसे लग रहे थे मानो मोती लगे हों। कितना सुन्दर था प्रकृति का मनोहारी श्रृंगार, पुश्प ही पुश्प—— सरसों के खेतों में पीले फूल लगे थे जिनकी उपमा आसमान के तारों से भी नहीं की जा सकती। एक लगड़ा सा व्यक्ति एक बाँसुरी हाथ में लिये एक छोटी सी लड़की की उँगली पकड़े चला जा रहा था। अचानक एक सुन्दर सा स्थान देख लड़की को पास बिठाल की बाँसुरी बजाने लगा।
बाँसुरी ही तो उसका सब कुछ थी इस दुनिया में ———-। एक समय था वह यौवन का कि वह शशी के घर में आते ही बाँसुरी बजाना भूल गया था फिर भी वह बाँसुरी बजाता था——– शशी की खातिर ! दुर्भाग्य शशी उसकी बाँसुरी ज्यादा समय तक न सुन सकी। वह इस दुनिया से विदा हो गयी एक छोटी सी दो वर्ष की लड़की छोड़कर ! तभी से बस-वह पागल सा हो गया था। घर तो उसके रहा ही नहीं था। शशी के बिना घर यह क्या सम्भव था नहीं ! वह उस लड़की को साथ लगाये बाँसुरी बजाता घूमता रहता था। उस लड़की का नाम भी उसने वेणू रखा था।
अचानक वह उठा—–वेणू की उँगली पकड़े——-बाँसुरी बजाते चलता ही गया। आगे दिल्ली में भी घुस गया—–वहाँ जहाँ संगीत पर प्रतिबन्ध था दिल्ली में बाँसुरी बजाने का मतलब था मृत्यु दण्ड। किन्तु उसे तो जैसे पता ही न था बजाता गया बाँसुरी, बादशाह के सैनिकों ने आकर घेर लिया तो वह चौंका। किन्तु अब क्या था वहाँ के वहाँ के राज संगीतज्ञ ने यह घोशणा करवा दी थी कि दिल्ली में कोई भी बाद्य यन्त्र नहीं बजायेगा, यदि कोई बजाता हुआ पाया गया तो राजाज्ञानुसार मृत्युदण्ड। मृत्युदण्ड ही भोगना पड़ा था बेचारे वेणु के पिता को। वेणु उस समय सात वर्ष की थ-वह रोते-2 परेशान थी। उसने अपने पिता का बदला लेने का संकल्प किया और चल पड़ी जंगल की ओर——-आबादी से दूर !
वह भटकी——भटकती रही और भटकते-भटकते उसे मिल गया एक दयालु संन्यासी जो संगीत कला में भी निपुण था। संन्यासी ने वेणु को अपनी छत्र छाया में आश्रम पर ही रखा। और वेणु तो जैसे पागल हो गयी थी संगीत के लिये ! लगी रही थी परिश्रम पूर्वक कठिन संगीत साधना में, वह संगीत के आगे सब कुछ भूल गयी थी। खाना—–पीना एवं विश्राम, सभी कुछ तो बलिदान कर दिया था संगीत के नाम पर !
परिश्रम का फल मीठा होता है, आखिर परिश्रम का फल तो वेणू को भी मिलना था साधना का फल——- तीन वर्ष की कठिन साधना का फल——-। आज वेणू बहुत खुश थी जब पिता का प्यार एवं गुरू का मार्गदशZन देने वाले संन्यासी बाबा ने उसके सिर पर हाथ फेर कर बड़े प्यार से कहा था। वेणू आज में प्रसन्न हूँ क्योंकि मेरे सम्पूर्ण जीवन की साधना तूने केवल तीन वर्ष में प्राप्त कर ली। तेरी कठिन साधना का ही फल है यह ! किन्तु बेटी ध्यान रखना कभी भी इस विद्या पर अभिमान न करना।
वेणू आज दिल्ली की सड़कों पर घूम रही थी। बाँसुरी से आज सारे नगर की जनता को बाँध लिया था। उन सैनिकों को भी जो उसे गिरफ्तार करने आये थे। वह चलती गई—–चलती गई और पहुँच गयी राजमहल में। राजमहल में बादशाह का बेटा बेहोश हो गया था अत्यन्त बीमारी के कारण, सारे महल में शोकाकुल वातावरण था, किन्तु वेणू को कोई भी नहीं रोक सका, बंशी बजाने से जैसे सभी का बोलना बन्द हो गया था, सभी को संगीत ने बाँध दिया था। संगीत के प्रभाव से बादशाह के पुत्र की बेहोशी टूट गयी वह संगीत में मस्त हो गया था। जब वेणू ने बाँसुरी बजाना बन्द किया तो बादशाह वेणू के पैरों में गिर पड़ा कि तूने मरे बेटे को प्राणदान दिया। मेरा सर्वस्व समर्पित है तुझको !
वेणू को चार साल पहले की घटना याद आ रही थी, जब राज संगीतज्ञ ने उसके पिता को प्राणदण्ड दिया गया था। उसकी इच्छा थी कि वह उस संगीतज्ञ की गर्दन कटवा दे किन्तु उसे गुरू की बात याद आयी और उसने चार वर्ष पहले की घटना याद दिलायी तो राज संगीतज्ञ काँपने लगा। किन्तु वेणू ने उसे दया कर छोड़ दिया एवं दिल्ली में से संगीत का प्रतिबन्ध समाप्त करवा दिया। इसे ही कहना चाहिये आदर्श बदला।

Advertisement

एक उत्तर दें

Fill in your details below or click an icon to log in:

WordPress.com Logo

You are commenting using your WordPress.com account. Log Out /  बदले )

Facebook photo

You are commenting using your Facebook account. Log Out /  बदले )

Connecting to %s

%d bloggers like this: