लोकतांत्रिक ईमानदारी
विद्यालय में नवागन्तुक प्राचार्य जी को कार्यभार ग्रहण किये हुए अभी बामुश्किल तीन माह ही हुए थे। वातावरण में एक नवीनता का आभास था। कर्मचारियों तथा छात्र-छात्राओं के मस्तिष्क में एक जिज्ञासा का भाव था क्योंकि अभी तक कोई भी उनकी कार्यपद्धति को नहीं समझ पाया था। उन्होंने कर्मचारियों से एक प्रकार की दूरी बनाए रखी थी। अत: कोई भी उन्हें समझ नहीं पा रहा था। युवा कर्मचारियों को उनसे विद्यालय के विकास की आशा थी तो पुराने वालों का अनुभव बोलता था कि अभी देखते जाइये पक्का घाघ है। लूटकर खायेगा तथा हवा भी नहीं लगने देगा। प्राचार्य अल्पभाशी,मधुर-भाशी व आकर्षक व्यक्तित्व के धनी थे। विद्यालय के अधिकांश कर्मचारियों तथा छात्र-छात्राओं में उनके प्रति सहयोग किये जाने की भावना थी क्योंकि पहली बार उनकी जाति के प्राचार्य आये थे।
उनके आने के बाद यह पहली स्टाफ मीटिंग थी क्योंकि अभी तक स्टाफ मीटिंग न बुलाकर एक प्रकार से वहाँ के वातावरण को ही समझने का प्रयत्न उन्होंने किया था। मीटिंग तीन घण्टे तक चली। उन्होंने सभी कर्मचारियों के साथ बड़े प्रेम से व्यवहार किया तथा बैठक बड़े ही सौहार्द्रपूर्ण वातावरण में संपन्न हुई। उन्होंने कहा,`मैं प्रशासन में पूर्ण लोकतंत्र का हिमायती हूँ। आप लोग नि:सकोच होकर स्पष्ट रूप से समस्याएँ मेरे सामने रखें तथा उसका समाधान सुझायें कि क्या किया जा सकता है? न केवल आपकी बात सुनी जायेगी,बल्कि आपको कार्य करने की पूरी स्वतंत्रता दी जायेगी।´
मीटिंग से निकलते हुए सभी कर्मचारी प्राचार्य जी की भूरि-भूरि प्रशंसा कर रहे थे। एक सृजनात्मक वातावरण का सृजन हो रहा था। मिस्टर गुप्ता स्टॉफ रूम में आकर बैठे ही थे कि विद्यालय का एक लिपिक आया, उसने गुप्ता जी के सामने एक बिल रख दिया। गुप्ता जी को बड़ा आश्चर्य हुआ। विद्यालय में 25000 रुपये का सामान खरीदा गया था। किन्तु बिना भौतिक सत्यापन के वे उस पर हस्ताक्षर कैसे करते। बिल पर भुगतान किया जाय की सील लगी थी तथा प्राचार्य जी द्वारा उसे पास कर दिया गया था। गुप्ता जी धर्म-संकट में फँस गये प्राचार्य जी के पास किये जाने के बाद वे बिल को कैसे रोकें? सामान कहाँ आया?…..कैसा आया?…..उन्हें कुछ पता नहीं, वे कैसे हस्ताक्षर कर दें। उन्हें अब वे सभी सुनी-सुनाई बातें याद आने लगी जिन पर उन्होंने कोई ध्यान नहीं दिया था,जो उन्हें प्रतिदिन सुनने को मिलती थी कि किस प्रकार मैस में से दूध व अन्य राशन सामग्री गायब हो रही थी तथा किस प्रकार पूर्तिकर्ता प्राचार्य जी के मित्र बनते जा रहे थे। गुप्ता जी ने बिल पर हस्ताक्षर करने से इन्कार कर दिया। लिपिक ने पुन: धमकी भरे अंदाज में विनती की सोच लीजिए गुप्ता जी प्राचार्य जी के हस्ताक्षर के बाद बिल को रोका जाना ठीक नहीं है। जब गुप्ता जी ने हस्ताक्षर करने से इन्कार कर दिया तो लिपिक महोदय प्राचार्य कक्ष में चले गये।
गुप्ता जी को विचारमग्न अवस्था में अभी पाँच मिनट भी नहीं हुए थे कि स्टॉफ रूम में चतुर्थ-श्रेणी कर्मचारी ने प्रवेश किया और बताया कि आपको प्राचार्य जी ने याद किया है। गुप्ता जी समझ गये कि उनकी पेशी है। गुप्ता जी प्राचार्य कक्ष में गये उस समय उनका मूड़ उखड़ा हुआ था। प्राचार्य जी ने गुप्ता जी का स्वागत उसी चिर-परिचित मुस्कान के साथ किया किन्तु आज गुप्ता जी को उसकी कृत्रिमता का आभास स्पष्ट हो रहा था जिसे वे आज तक महसूस नहीं कर पाये थे। प्राचार्य जी ने बड़ी मधुर भाषा गुप्ताजी को समझाया, मैं प्राचार्य हूँ इस विद्यालय का, जब मैने बिल को पास कर दिया तो आपको आपत्ति नहीं होनी चाहिए गुप्ता जी। मैंने हस्ताक्षर कर दिये तो आप इन्कार कैसे कर सकते हैं? विद्यालय मुझे चलाना है आप सहयोग कीजिए वरना मुझे उप-निदेशक महोदय से बात करनी होगी। आप प्राचार्य के द्वारा हस्ताक्षरित बिल पर हस्ताक्षर करने से मना करके चेयर की अवहेलना कर रहे हैं। आपकी ए.सी.आर. खराब हो सकती है। आप वरिष्ठ अध्यापक हैं आपको प्रशासनिक नियमों का पता होना चाहिए। आपकी जानकारी के लिए आपको बता दूँ। प्रशासन के क्षेत्र में दो नियम लागू होते है़-
Rule 1:–Boss is always right.
Rule 2:-If there is any confusion, see rule number 1.
गुप्ता जी की अगले वर्ष ही पदोन्नति होने वाली थी। बड़ी आसानी से समझ गये। अत: उन्होंने बिना ना-नूकुर के हस्ताक्षर किये और प्राचार्य कक्ष से बाहर आ गये। प्राचार्य जी बड़े ही ईमानदार आदमी थे तभी तो उन्होंने गुप्ता जी को माफ कर दिया तथा उनका हिस्सा भी उसी दिन शायंकाल उनके आवास पर भिजवा दिया।
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