दहेज की खूनी होली
गहन अंधकार है गहन! लगता है मेरी ज्योति ही कहीं खो गई है। अंधकार का साम्राज्य चारों ओर व्याप्त है। अन्दर अंधकार,बाहर अंधकार,रात्रि को अंधकार की संभावना की ही जा सकती है लेकिन यहाँ तो दिन में भी रात्रि का अंधकार ही व्याप्त है। चाँद रोशनी न दे पाये न सही किन्तु सूरज ही अंधकार बरसाने लगे तो उसके जीवन का मतलब ही क्या रह जाता है?सचमुच मेरे जीवन में अंधकार ही अंधकार है।
ज्योति की खोज में, मैं कहाँ-कहाँ नहीं भटका? दर-दर भटका, भटकता रहा, भटकते-भटकते भटकने के लक्ष्य से ही भटक गया किन्तु भटकने का अन्त नहीं आया। मुझे मेरी ज्योति नहीं मिलनी थी, नहीं मिली। मिली, हाँ, मिली। क्या वह ज्योति ही थी? नहीं-नहीं वह ज्योति नहीं थी, वह ज्योति हो ही नहीं सकती। ज्योति तो सदैव मुस्कराने वाली लड़की थी। उसके चेहरे पर तो सदैव ही मुस्कान सजती रहती थी। उसके चेहरे पर तो खोफ,पीड़ा और निरीहता के सिवा कुछ था ही नहीं। वह ज्योति कैसे हो सकती है। वह आई थी तो जीवन में प्रकाश का प्रतीक बनकर आई थी। उसकी चंचलता सभी की उदासी को दूर करती थी,खामोशी को तोड़ देती थी। वही ज्योति इस प्रकार गई कि जीवन में अंधकार के सिवा कुछ रह ही नहीं गया है। वह प्रकाश बनकर आई थी तथा अंधकार दे गई। वह प्रसन्नता बिखेरती आई थी,जाते-जाते उदासी दे गई। उत्साह,साहस व जोश जगाने वाली ज्योति दुख,निरीहता व कायरता देकर चली गई। अब लगता है मैं कभी भी कुछ नहीं कर सकता। मैं ज्योति के जीवन को नहीं बचा पाया। इसके बाद जीवन में रह ही क्या जाता है?
वही ज्योति जो कहती थी,भैया ज्योति तेरे साथ ही रहेगी। ज्याति कहीं भी तेरा साथ छोड़कर कहीं भी नहीं जायेगी, कभी भी नहीं जायेगी। वही ज्योति इस तरह चली जायेगी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। कितनी बाबरी बातें करती थी ज्योति। मैं कितना समझाता था उसे,`बाबरी है तू तो ज्योति। सभी को जाना होता हे एक ना एक दिन। तेरी शादी हो जायेगी और तू भी चली जायेगी अपनी ससुराल।´
वह रोने लगती,`नहीं, भैया। कहो ना भैया कि तुम कभी मुझे अपने से अलग नहीं करोगे। कभी भी कहीं नहीं भेजोगे………………..।´
होली से दो दिन पहले की ही तो बात है जब ज्योति का पत्र मिला था मुझे। हाँ, होली की तैयारियाँ चल रहीं थीं। छोटे भाई ने कई दिन से कह रखा था,`भैया होली पर खूब सारा रंग चाहिए मुझे। खूब सारा। और एक छोटी सी सुन्दर सी पिचकारी।´
वही सब लेने तो मैं बाजार जा रहा था। रास्ते में डाकिया मिल गया था। उसने रास्ते में ही दे दिया था वह पत्र। पत्र ही तो था। नहीं, वह पत्र नहीं, वह मेरी ज्योति की मौत का पैगाम था। वह पत्र ज्योति द्वारा ही लिखा गया था। ज्योति के हस्त-लेख को तो मैं लाखों में से पहचान सकता हूँ। कितना सुन्दर लिखती थी वह। ज्याति का ही तो था वह पत्र। जिसमें लिखा था……… क्या लिखा था? लिखा था,`मुझे तुम्हारी स्थिति मालुम है भैया! अत: और तो कुछ नहीं कह सकती। हाँ, इतना अवश्य बताना चाहती हूं कि शायद तेरी ज्योति को होली देखना नसीब न हो। होली नहीं देख पायेगी तेरी ज्याति। घर में जैसी परिस्थितियाँ पैदा की जा रही हैं। संभव है मैं होली तक जीवित न रह पाऊँ।´
पत्र को पढ़कर फूट-फूट कर रो पड़ा था मैं। आगे बाजार जाकर सामान खरीदकर लाने की हिम्मत ही नहीं रह गई थी मुझमें। दूसरे दिन ज्योति की ससुराल जाने का निर्णय कर, मैं घर वापस आ गया था।
`भैया…..भैया…. कल की होली है। मैं तो कुछ सुन ही नहीं रहा था। जैसे एक स्वप्न देख रहा था। नहीं…..नहीं…… नहीं होली नहीं आ सकती। नहीं, नहीं, मेरी ज्योति के सामने होली नहीं आ सकती। अपने आप पर से नियन्त्रण ही नहीं रह गया था। छोटा भाई खेलने जा चुका था। मैं ज्योति के यहाँ जाने की तैयारी करने लगा। उसी समय पड़ोस की एक लड़की आई जिसने बताया कि आपका फोन आया है। मैं अंजानी आशंका के साथ उसके साथ चाल पड़ा।
टेलीफोन पर ज्योति की पड़ोसन व सहेली राधा रूँआसी आवाज में बोल रही थी,`मैं राधा बोल रही हूँ। आप जल्दी से यहाँ आ जाइये। ज्योति अब इस दुनियाँ में नहीं रही। चुपके से शीध्रता में अंतिम संस्कार की तैयारी हो रही हैं तथा यह प्रचारित किया जा रहा है कि ज्योति की मृत्यु स्टोफ फटने से हुई है।´
मैं हक्का-बक्का रह गया,मस्तिश्क ने कार्य करना बन्द कर दिया था। मैं अपनी ज्योति को बचा नहीं पाया। अब शीध्रता से ज्योति की ससुराल पहँुचना था। मैं जितनी जल्दी कर सकता था,उतनी जल्दी चल पड़ा,किन्तु मैं उसके अंतिम दशZन भी न कर सका। मैं जब वहाँ पहुँचा उसकी चिता की आग ठण्डी हो चुकी थी। वहाँ सभी इस प्रकार का नाटक कर रहे थे, मानो वह कितने दुखी हैं।
मैंने कहाँ-कहाँ चक्कर नहीं लगाये ज्योति के हत्यारों को सजा दिलाने के लिए। थाने में तो रिपोर्ट लिखने की बजाय मुझे ही धमकाया गया। मैंने किस-किस कोर्ट के चक्कर नहीं लगाये किन्तु मुझे न्याय नहीं मिला। मैं ज्योति के हत्यारों को सजा नहीं दिलवा पाया। सारे सबूतों को मिटा दिया गया था तथा गवाहों को खरीद लिया गया था। मेरे लिए खूनी होली बनकर आई थी वह होली। जिसने मेरी ज्योति को ही लील लिया।
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