यह मेरा गाँव नहीं है……….

गाँव ?

मौनू ने बस से उतरते ही देखा, अपने चारों तरफ, यह क्या हम दूसरी जगह आ गये यह तो नहीं है हमारा गाँव। नहीं, यह हमारा गाँव नहीं हो सकता। तभी पिताजी ने कहा,`देखो बेटे अपना गाँव कितना बदल गया है।´हमारा गाँव हाँ, हाँ, हमारा गाँव ही तो है। हमारे पिताजी हमें गाँव ही तो लाये हैं। कितने दिनों से हम इन्तजार कर रहे थे, गाँव आने के लिये, पिताजी जब भी गाँव जाने की बात करते, मैं फूला नहीं समाता। पिताजी ने उस दिन जैसे ही गाँव जाने की बात कही थी, मैं दौड़ता हुआ सर्वप्रथम माताजी के पास पहुँचा और कितनी प्रसन्नता से बताया था माताजी को कि हम गाँव जायेगें।

गाँव नाम सुनते ही मौनू का अंग अंग खुशी से झूम उठा। कैसा प्यारा गाव है उसका? वही बचपन वाला आम का पेड़ जिससे आम तोड़-तोड़ कर खाया करते थे सब बच्चे। कितने सारे मित्र थे मौनू के दीपक, शरद, रहीम, “याम और याद भी नहीं वह कितने बच्चे तालाब के किनारे जाकर खेलते थे, वह हरा-भरा बगीचा कितने सालों से नहीं देखा मौनू ने। वह गाँव में जाकर सबसे पहले बगीचे में ही जायेगा और जामुन के पेड़ पर चढ़ जायेगा।
मौनू जब सात वर्ष का ही तो था जब पिताजी की नौकरी लगी थी और वह पिताजी के साथ चला आया था। महीनों तो उसका मन ही नहीं लगा था शहर में शहरी चमक दमक को देखकर उसे आश्चर्य तो होता था किन्तु अच्छा नहीं लगा। लगता भी कैसे? दादी माँ को जो छोड़कर आया था। रामू दादा कितना प्यार करते थे उसे जब भी बाजार जाते उसके लिये अंगूर अवश्य लाते और कहते बेटा खूब खाया कर अंगूर, घी, दूध। शरीर बलवान होता है। शरीर बलवान होता है तो बुद्धि भी तेज होती है। बुद्धि से बुद्धिमान होते हैं। और मैं सब सुनता-2 अंगूरों को चट कर जाता। पीपल वाली ताई की बराबर तो शहर में आकर कभी मम्मी से भी प्यार नहीं मिला। जब स्कूल से लौटते समय उनके पास न जाता तो वह चिल्लातीं थीं। मारने दौड़ती थीं उन्हें चिढ़ाने में सचमुच कितना आनन्द आता था।
चलते-चलते गाँव दिखायी देने लगा था किन्तु रास्ते में उसे कहीं भी वह नीम का पेड़ नहीं दिखा जिस पर वह झूलते थे। पूँछने पर पापा ने बताया कि जिस सड़क पर हम चल रहें हैं उसके कारण वह काट दिया गया। यह सुनकर बड़ा दु:ख हुआ बचपन का लगाव जो था उससे। अपने घर पहुँचे तो बाहर टूटी चारपाई की जगह तख्त पड़ा था जिस पर बूढ़ी दादी माँ पड़ी थी। मौनू तो उन्हें पहचान भी नहीं पाया था। उन्होंने बड़े प्यार से मौनू के सिर पर हाथ फिराया।
शांय 4 बजे मौनू बचपन के मित्र दीपक के साथ गाँव में घूमने निकला तथा बगीचा में चलने को कहा । दीपक ने उदास होकर बताया कि बगीचा तो समाप्त हो गया उसकी जगह ताऊ ने भट्टा लगा दिया है जो धुआँ देता रहता है। रामू दादा का लड़का किसी सरकारी अफसर के घर काम करता है इसलिये उसने खेलने वाले मैदान पर भी कब्जा कर लिया है। पीपल वाली ताई के यहाँ गये तो वहाँ पीपल ही नहीं था। ताई ने बताया कि अब तो यहाँ शकरकन्द भी नहीं होती जमीन ही इस लायक नहीं रही तथा गाय भी बेच दी गयी है। यह सब सुनकर मौनू का दिल बैठा जा रहा था। बगीचा भी नहीं —– पीपल भी नहीं—- आम का पेड़ भी नहीं—- शकरकन्द भी नहीं—— शकरकन्द की खीर नहीं वह दुखी होकर चिल्लाने लगा ।यह मेरा गाँव नहीं है।

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