मर्यादा
मैं अक्सर यही सोचता रहता हूँ कि आजकल के लड़के लड़कियों का जो व्यवहार है,उसे चारत्रिक पतन कहूँ या आधुनिकता! कभी-कभी सोचने लगता हूँ कि यह वक्त का फेर ही है, ऐसा ही होता है उस आयु में। कभी-कभी सोचता हूँ यह विकृत शहरी संस्कृति का परिणाम है,गाँवों में तो ऐसा संभव ही नहीं। हाँ, शहरों में किशोर व युवा वय के विद्यार्थियों के जीवन में ऐसी घटनाएँ घटित होना आम बात ही है।
उस समय मैं महाविद्यालय का छात्र था। घर में चाची जी से कभी भी पटती न थी। चाचा जी बहुत प्यार करते थे,प्यार तो चाची जी भी कम न करतीं थीं किन्तु न जाने क्यों ? उनका स्वभाव ही कुछ ऐसा था कि कभी भी मुझे अच्छा न लगा। उनके सामने कभी भी मैं अपनी बात खुलकर कह ही नहीं पाता था। घर में यदि घर की मालकिन से ही बना के न रखा जा सके तो उस घर में सुकून से कैसे रहा जा सकता है? अत: परेशान होकर,पिताजी ने किराये पर कमरा लेकर अलग रहने की व्यवस्था कर दी थी। आखिर पढ़ना तो था ही,और गाँव में उच्च अध्ययन की व्यवस्था नहीं थी। कितनी परेशानी होती थी,भोजन बनाने में,झाड़ू लगाने में बर्तन साफ करने में, किन्तु फिर भी प्रसन्न रहता था। स्वतंत्रता जो थी। चाची जी की व्यर्थ की टोका-टाकी से तो मुक्ति मिली।
शहरी जीवन मेरे लिए बिल्कुल नया था। एक नया उत्साह था,स्वतंत्रता का नया आनन्द था किन्तु फिर भी परेशान। मैं अभी तक कभी भी अकेला नहीं रहा था। एकांकीपन जैसे खाने को दौड़ता था। यहाँ तो एकदम अकेला पड़ गया था। कोई परिचित भी न था। प्रथम वर्ष थी अभी कालेज भी रास नहीं आ रहा था। किसी से बात करने में भी डर लगता था,दोस्ती करने की तो बात ही बहुत दूर की कोड़ी थी। इस अपरिचित माहोल में किसी से बात करने का साहस न होता किन्तु अकेला रहना तो उससे भी अधिक मुिश्कल था। अपरिचित माहौल में किसी को परिचित बनाने की ललक थी। प्रबल इच्छा थी कि न केवल परिचित बल्कि एक दोस्त हो,एक हमराज हो जिससे खुलकर बात कर सकँू। जिसके साथ बैठकर घड़ी भर को लगे कि कोई अपना भी है।
सुबह-सुबह का समय था। मैं प्रात:काल उठने में लेट हो गया था। अत: कालेज जाने की तैयारी हड़बड़ी में की क्योंकि सुबह सात बजे से क्लास लगतीं थी। आज मुझे देरी हो गई थी अत: मैं अपने मकान के दरवाजे से लगभग दौड़ने जैसी हालात में बाहर निकला। जल्दी का काम शैतान का,मैं आमे देख ही नहीं पाया था कि अकस्मात किसी से जा टकराया।
मैं घबड़ा गया। वह गिर पड़ी थी। मुझे अपनी लापरवाही का अहसास हुआ,लेकिन अब क्या हो सकता था। मैंने डरते हुए उसे कहा,`सॉरी मैं कुछ जल्दी में था अत: देख नहीं पाया।´ वह जबाब मैं केवल मुस्करा दी,मैं आश्वस्त हुआ अन्यथा डर लग रहा था,लड़की है न जाने क्या बखेड़ा खड़ा कर दे। मुझे कॉलेज जाने की जल्दी थी अत: उससे छुटकारा पाकर रिक्शे पर जाने की इच्छा से सामने देखा ही था कि सामने ही रिक्शा दिखाई दिया। मैं रिक्शे पर बेठ गया तथा रिक्शे वाले से कॉलेज चलने के लिए कहा। रिक्शे वाला चलता उससे पहले ही वह भी आकर उसी रिक्शे पर बैठ गई तथा रिक्शे वाले से बोली, `मुझे भी उधर ही जाना है,जल्दी से चलो´। दुर्भाग्य कहूं या सौभाग्य उसका कालेज भी उसी दिशा में रास्ते ही मैं पड़ता था। मैं कर भी क्या सकता था,एक तरफ सिकुड़ कर बैठ गया। मैं पहले ही एक गलती कर चुका था,अब ऐसी किसी हरकत से बचना चाहता था जिससे वह मुझे बदतमीज समझे।
`क्या नाम है आपका?´ उसकी सुरीली आवाज मेरे कानों में पड़ी। मेरे लिए उसका प्रश्न अनपेक्षित था अत: उसके प्रश्न से चौंका! जैसे-तैसे उत्तर दिया, `आलोक´। उसके बाद तो प्रश्नों की झड़ी ही लग गई, क्या करते हो? कौन सी क्लास में पड़ते हो ? कौन-कौन से सब्जेक्ट हैं? कहाँ रहते हो? मेरी इच्छा हो रही थी कि उससे कह दूँ कि आपको क्या मतलब? किन्तु मेरी हिम्मत नहीं पड़ी और जैसे-तैसे उसके प्रश्नों के जबाब देता गया।
अब तक मैं सामान्य हो चुका था। अब मेरी बारी थी। मैंने पूछा,आपका नाम?
नीतू, उसने मुस्करा कर जबाब दिया। इतना छोटा व प्यारा नाम है आपका। मेरे मुँह से अकस्मात निकल गया।
`वैसे मेरा पूरा नाम नीता भारद्वाज है,घर में प्यार से नीतू कहते हैं´ उसने स्पश्ट किया। तब तक उसका कालेज आ गया था। वह रिक्शे से उतर कर चली गई।
उस दिन अक्षय नवमी थी। मथुरा की पंच-कोसी परिक्रमा लग रही थी। मैंने भी सोचा,खाली बैठे क्या करें आज परिक्रमा ही लगा ली जाय। और मैं बिना अधिक सोच-विचार किये चल पड़ा परिक्रमा लगाने। मैं अकेला तो था ही अपने ही चिन्तन में लीन चला जा रहा था कि तभी मुझे लगा कि कोई मुझे पीछे से पुकार रहा है। मैंने पीछे मुड़कर देखा तो दौड़कर आती हुई नीतू दिखाई दी। उसकी साँसो की गति से लग रहा था कि वर काफी देर से दौड़ रही है।
`कितनी देर से पुकार रही हूं मैं आपको। आप हैं कि बस दौड़ते चले जा रहें हैं जिससे आस-पास कोई और है ही नहीं।´ उसने पास आते हुए उलाहने भरे स्वर में कहा।
`नहीं,दौड़ तो नहीं रहा, आपकी आवाज ही सुनाई नहीं दी´ मैंने झेंपते हुए कहा।
`आप अकेली हैं क्या?´ मैंने प्रतिप्रश्न किया।
`नहीं तो, अकेली कहाँ हूँ,इतने सारे लोग जो हैं और आप भी तो साथ हैं। हाँ,लगता है आप अवश्य अकेले हैं जो इतने लोंगो के बीच में चलते हुए भी बगल वाले का नहीं पता कि बगल में कोई है भी कि नहीं´ उसने दा्र्शनिक अन्दाज में कहा।
नीतू सुन्दर तो थी ही। हँसमुख स्वभाव उसकी सुन्दरता में चार चाँद लगा रहा था। वह जितना खुलकर बात कर रही थी मैं स्वयं भी आश्चर्यचकित था। ऐसा लगता था कि जैसे हम वर्षों से एक दूसरे के साथ रह रहें हों। वह बातों पर बातें किए जा रही थी। मैं उसकी बातों में साथ नहीं दे पा रहा था। केवल हाँ या नहीं कहकर काम चला रहा था। मैं उसी के बारे में सोच रहा था, कैसी लड़की है,`जान न पहचान कूद पड़ा शैतान´।
`आप जूस पियेंगे?´ अचानक उसने पूछा।
`नहीं,मेरी इच्छा नहीं है। आप की इच्छा हो तो पी लें।´ मैंने औपचारिकता पूरी करते हुए कहा।
`इच्छा नहीं है तो न सही। बिना इच्छा के ही पी लो, जरूरी थोड़े ही है कि प्रत्येक कार्य अपनी इच्छा से ही किया जाय। कभी-कभी दूसरों की इच्छा के अनुसार भी चलना चाहिए, और फिर मैं अकेली थोड़े ही पी सकती हूँ। चाहिए तो यह था कि आप स्वयं मुझे आग्रहपूर्वक जूस पिलाते,आखिर एक लड़की आपके साथ चल रही है और आप हैं कि उसे एक गिलास जूस के लिए ऑफर नहीं कर सकते। ऑफर करना तो दूर की बात उसके ऑफर को भी ठुकराने के लिए तैयार बैठे हैं। कैसे लड़के हैं आप? अब एक शब्द भी नहीं सुनूँगी चुपचाप मेरे साथ दुकान पर आओ।´आदेश देती हुई जूस की दुकान की ओर मुड़ गई। मेरे पास उसका अनुकरण करने के सिवा कोई चारा न था।
जूस पीते-पीते उसकी दृष्टि परिक्रमा मार्ग के किनारे पत्थर के टुकड़ों से बनाई गई छोटी-छोटी आकृतियों की ओर गया। जिनको इकट्ठा करके एक घर की रूपरेखा बनाने की कोिशश की गई थी। मेरा ध्यान उस ओर आकर्शित करके उसने पूछा,`यह क्या है? क्या तुम जानते हो?´
मैंने इन्कार करते हुए सिर हिला दिया,`नहीं तो।´
उसने बिना मेरे प्रति-प्रश्न के स्वयं ही बताना प्रारंभ कर दिया,`यह परिक्रमार्थियों द्वारा बनाये गये घर हैं, ऐसी धारणा है कि परिक्रमा मार्ग में जो इस तरह घर बनाता है। वास्तविक जीवन में उसका घर बन जाता है अर्थात उसका घर बस जाता है।´
मेरे मुँह से अनायास ही निकला, `सच?´
`यह तो नहीं जानती´ उसका जबाब था।
मैंने प्रश्न किया,`तुमने घर बनाया?´
`अभी तो नहीं´ उसने शरमाते हुए जबाब दिया।
`चलो, हम दोंनो भी एक-एक घर बनाते हैं।´ मैंने ऐसे ही मनोविनोद में कहा।
`एक-एक नहीं,एक घर बनाते हैं।´ उसने मुस्कराते हुए कहा और खड़ी हो गई। हम दोंनो थोड़ी दूर तक आगे चले फिर परिक्रमा के रास्ते से एक किनारे हटकर पेड़ो के झुरमुट में जाकर बैठ गये। अब मैं और वह दोंनो के सिवा वहाँ कोई नहीं था। वह बिल्कुल मुझ से सटकर बैठी थी,उसका हाथ मेरी कमर में था। मैं नि:संकोच उसकी काली-काली अलकों में उगँली घुमा रहा था। ऐसे ही जाने कितना समय निकल गया था, पता ही नहीं चला। उसने अपनी दोनों संगमरमरी बाहें मेरे गले में डाल दी थीं। मैंने उसे सीने से लगा लिया था। `मुझे तो संपूर्ण परिक्रमा का पुण्य मिल गया´ उसने चुंबन लेते हुए कहा।
परिक्रमा, परिक्रमा का नाम सुनकर मैं चेतनावस्था में आया। मैं तो परिक्रमा को बिल्कुल भूल ही गया था। अचानक मैंने उसे आलिंगन से अलग करते हुए प्यार से कहा,`घर नहीं बनाओगी,चलो काफी देर हो गई है। अभी परिक्रमा में भी काफी समय लगेगा। और परिक्रमा में यह सब ठीक नहीं।´
मैं खड़ा हो चुका था। वह भी अनमनयस्क सी खड़ी हो गई और अपने कपड़े सभाँलती हुई,कुछ रूठी हुई सी चल दी। हाँ,घर बनाने के लिए,न मैंने उससे कहा तथा न ही उसने और शेश परिक्रमा हमने सामान्य बातें करते हुए पूरी की परिक्रमा के बाद उससे भेंट ही नहीं हुई। मैं आज भी संतुश्ट हूँ कि उस दिन कम से कम हमने परिक्रमा की मर्यादा को बनाये रखा।
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बहुत ही सुंदर कहानी।