आज उसका पुरूषत्व जाग उठा

पुरूषत्व बनाम दहेज

राकेश अपने फ्लेट की घण्टी बजाना ही चाह रहा था कि अन्दर की फुसफुसाहट सुनकर रूक गया। खिड़की के पास जाकर ध्यान से सुनने लगा। अपरिचित स्वर `डार्लिग मेरा तो दिल धड़क रहा है, कहीं ऐसा न हो कि किसी दिन कोई देख ले और तुम्हारे पति से कह दे। ऐसे प्रतिदिन मेरा आना ठीक नहीं है।´
`मैं कितनी बार कह चुकी हूँ विजय। राकेश बेचारा बड़ा सीधा है। उसको इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा। उसका पुरूषत्व मेरे पिता द्वारा दिये गये दहेज से दब गया है । कहने की तो क्या वह स्वयं देख भी ले तो भी न बोले।´ मंजू ने लापरवाही के साथ जबाब दिया।
राकेश के लिये और सुन पाना सम्भव नहीं था उसके हाथ स्वत: ही घन्टी पर पड़ गये, आज उसका पुरूषत्व जाग उठा।

अब तो कभी नहीं छुपोगे ?

अदालत

अदालत कोर्ट कचहरी आदि से कौन परिचित न होगा ? किन्तु वकीलों, न्यायाधीशों व अदालती कर्मचारियों को छोड़कर शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति मिले जो अदालत जाना पसन्द करे। अदालत विभिन्न प्रकार की होतीं हैं- तहसील की अदालत, जिला अदालत से लेकर उच्चतम न्यायालय तक अदालतों की एक बहुत बड़ी श्रंृखला पाई जाती है। इनके अतिरिक्त आजकल अन्य वििशश्ट अदालतों का गठन भी होने लगा है, जैसे-उपभोक्ता अदालत,पारिवारिक अदालत तथा इसी तरह की अन्य अनेक विशिष्ट अदालतें। किन्तु मेरा इन अदालतों से कोई प्रयोजन नहीं, मैं उस अदालत की बात कर रहा हूँ जिसमें किसी वकील या पेशकार की आवश्यकता नहीं पड़ती।
जी,हाँ! मैं उस अदालत की बात कर रहा हूँ जिसमें बिना बहस के सत्य की परतें उघड़ती चली जाती हैं। जिसमें किसी गवाह की आवश्यकता नहीं पड़ती, जिसकी कार्यवाही के लिए किसी प्रक्रिया व निर्धारित कार्यक्रम की आवश्यकता नहीं पड़ती।जहाँ अभियुक्त की भूमिका में भी मैं ही हुआ करता था तो अपराध को स्वीकार कर गवाह-सबूत का कार्य भी मैं ही पूरा कर दिया करता था। वकील या सिफारिशी की भूमिका आवश्यक होने पर मेरी माताजी पूरी करती थीं। उस अदालत में कभी किसी भी प्रकार की सजा नहीं दी जाती,क्षमा करके गोदी में ले लेना ही वहाँ का अन्तिम निर्णय होता था, होता था क्यों ? होता है। आप बता सकते हैं ? मैं किस अदालत की बात कर रहा हूँ ।
जी ,हाँ!आप सही पहुँचे। मैं पिताजी की अदालत की ही बात कर रहा हूँ। बचपन में, पिताजी की अदालत में, एक बार मेरी पेशी हुई। पिताजी की अदालत से मुझे इतना डर लगता था कि अगर मैं कोई अपराध कर बैठता और माताजी पिताजी के पास ले जातीं तो उनसे निवेदन करता आप कितना भी दण्ड दें लें किन्तु पिताजी के पास न ले जाये। एक बार की घटना तो मुझे अभी तक ऐसी याद है जैसे, पिताजी सामने खड़े हैं और मैं अपराधी जमीन में गढ़ा जा रहा हूँ।
एक दिन सुबह-सुबह मैं कॉलेज जाने के लिये घर से निकला, पर कॉलेज नहीं गया क्योंकि विज्ञान के गुरुजी ने जो काम दिया था, उसे मैं पूरा नहीं कर पाया था। विज्ञान के गुरुजी बड़े तेज मिजाज के थे। उनके द्वारा लगाई जाने वाली पिटाई से कक्षा के सभी छात्र घबड़ाते थे। मेरा भोजन किसी न किसी माध्यम से कॉलेज भेज दिया जाता था। मैं कालेज तो गया ही नहीं था तथा यह डर भी बना हुआ था कि भोजन के समय मेरा कॉलेज में न मिलना पिताजी को पता चल गया तो क्या हालात होगी ? मेरे गाँव से कालेज लगभग दो किलोमीटर दूर थी। बीच में एक बम्बा (नाला) पड़ता था। नाले पर से जो मुख्य रास्ता था वहीं पर मूँज में छिपकर मैं बैठ गया और भोजन लाने वाले की प्रतीक्षा करने लगा।
काफी दूर से ही मैंने भोजन लाने वाले को देख लिया। अब समस्या थी कि इनसे भोजन लेने सामने कैसे जाँऊ? ठीक समय पर मस्तिष्क ने काम किया, मैंने बस्ते को वहीं छिपाया, चुपके से निकल दौड़ता हुआ अपने घर की ओर चलने लगा। रास्ते में भोजन लाते हुए भोजन लाने वाले को तो मिलना ही था, वे बोले यहाँ क्यों आय? उत्तर दिया भाई जी भूख लग रही थी सोचा घर पर जाकर ही भोजन कर आऊँ और टिफिन लेकर उन्हें लौटाकर वापस अपने छुपे हुये स्थान पर आया तथा भोजन कर बैठा रहा । छुट्टी की घण्टी सुनकर घर पहुँचा।
दुर्भाग्य से मेरी करतूतों का पता घर पर लग चुका था। कोई सज्जन मुझे छिपा हुआ देख आये थे और उन्होंने हमारे घर सबकुछ बता दिया था। मैं घर पहुँचा ही था कि माताजी के द्वारा मुझे पिताजी के पास जाने का निर्देश मिला। मुझे पता नहीं था,फिर भी चोर की दाढ़ी में तिनका वाली कहावत। मैं डरता-डरता पिताजी के पास पहुँचा। पिताजी ने बड़ी ही शान्ति से पूछा कहाँ से आ रहे हो? मैंने जबाब दिया, `कॉलेज` से। इसके बाद पिताजी ने आदेश दिया- कॉलेज में क्या-क्या पढ़ाया? बस्ता लाकर हमें दिखाओ। मैं जीवन की एक कठिन समस्या से जूझ रहा था। मुँह से अपने आप निकल पड़ा, कालेज में आज कोई भी पीरियेड नहीं लगा।
मुझे यह नहीं पता था कि मैं काँप भी रहा हूँ। पिताजी की आँखे गुस्से से लाल हो रहीं थी। मेरे एक तमाचा लगाते हुए बोले सच-सच बताओ। अब मेरा धैर्य टूट चुका था मैंने रोते-रोते सबकुछ बता दिया।
अदालत बन्द हो चुकी थी। मैं पाँच दिन तक बहुत परेशान रहा क्योंकि पिताजी ने मुझसे बोलना बन्द कर दिया था। यह मेरे लिये सबसे बड़ी सजा थी। अब मुझे प्रतीक्षा थी पिताजी के सामने जाने की। आखिर छठवें दिन उन्होंने मुझे बुलाया और पूछा- अब तो कभी नहीं छुपोगे ? मैंने कहा अब कभी नहीं !

सन्तोषी सदा सुखी

सन्तोषी सदा सुखी

एक मुकुन्दपुर नाम का एक गाँव था। गाँव के पास ही एक कच्ची सड़क थी वह सड़क ही मुख्यत: वहाँ से आने जाने का एक साधन थी। उसी गाव में राधा नाम की एक औरत रहती थी, बेचारी के एक बेटा था। वह दिन भर कड़ा परिश्रम करती तब जाकर खाने पीने की व्यवस्था कर पाती। खाने-पीने के बाद धन बचाकर बच्चे की पढ़ाई में लगा देती। इसी प्रकार मेहनत करके उसने अपने बेटे को हाईस्कूल करा दिया था। उसके बेटे का नाम था रमेश। रमेश भी पढ़ने में मेहनती था अत: वह चाहती थी कि उसका बेटा खूब पढ़े और एक बड़ा आदमी बने।रमेश को पढ़ाने के लिये राधा ने और अधिक काम करना प्रारम्भ किया और जैसे तैसे रमेश को पढ़ने के लिये शहर भेज दिया। रमेश शहर में जाकर कालेज में पढ़ने लगा। उसकी माँ महीने के महीने पैसे भेज देती। इसी प्रकार रमेश ने बी.ए. किया और एक दिन उसकी नौकरी भी लग गयी।राधा को जब यह पता लगा रमेश की नौकरी लग गयी है उसकी प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। अब उसके सपने पूरे होने का समय जो आया था। वह सोच रही थी कि अपने बेटे की धूमधाम से शादी करेगी। घर में एक बहू आयेगी तो उसे भी कुछ आराम मिलेगा।
राधा एक दिन बैठी पड़ोसिन से बातें कर रही थी कि उसका बेटा कितना अच्छा है? नौकरी लग गयी है———आदि। उसी समय डाकिया ने उसको एक पत्र दिया जो रमेश का ही था उसमें लिखा था, “माँ मैनें अपने साथ की एक खूबसूरत लड़की से शादी कर ली है।´´ तुम इस बारे में न सोचना। पत्र पढ़ते-2 बेचारी राधा का तो दिल ही टूट गया। बुढ्डी हो गयी जिसकी आशा में उसके भी यही हाल। अब तो बेचारी राधा काम करने लायक भी नहीं रही। क्या करेगी वह। वह कई दिन तक अपने घर में बैठी-2 रोती रहती कई दिन तो घर से बाहर भी न निकली। उसके चार-पाँच दिन तो बीत गये बिना कुछ खाये पीये।
एक दिन एक साधू भिक्षा माँगते-2 आया तो उसने बुढ्ढी को रोते हुये देखा। साधू ने राधा से पूछा कि वह क्यों रो रही है तो उसने उसे सारा दुख कह सुनाया। साधू ने कहा, “धीरज रखो रोने से क्या होगा,´´ सन्तोश रखो सन्तोशी सदैव सुखी रहता है। यह कहकर वह चला गया। साधू के चले जाने पर वह गाँव से बाहर सड़क के किनारे झोंपड़ी में रहने लगी। वह वहाँ से गुजरने वालों को पानी पिलाती। कुछ समय बाद वह स्थान ही प्याऊ के नाम से मशहूर हो गयी। उसे सभी प्याऊ वाली अम्मा कहकर पुकारते वह उसे वहीं खाना दे जाते। वह अब सुखी थी चिन्ता मुक्त थी। वह सभी से कहती बेटा “सन्तोषी सदा सुखी
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