पुरूषत्व बनाम दहेज
राकेश अपने फ्लेट की घण्टी बजाना ही चाह रहा था कि अन्दर की फुसफुसाहट सुनकर रूक गया। खिड़की के पास जाकर ध्यान से सुनने लगा। अपरिचित स्वर `डार्लिग मेरा तो दिल धड़क रहा है, कहीं ऐसा न हो कि किसी दिन कोई देख ले और तुम्हारे पति से कह दे। ऐसे प्रतिदिन मेरा आना ठीक नहीं है।´
`मैं कितनी बार कह चुकी हूँ विजय। राकेश बेचारा बड़ा सीधा है। उसको इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा। उसका पुरूषत्व मेरे पिता द्वारा दिये गये दहेज से दब गया है । कहने की तो क्या वह स्वयं देख भी ले तो भी न बोले।´ मंजू ने लापरवाही के साथ जबाब दिया।
राकेश के लिये और सुन पाना सम्भव नहीं था उसके हाथ स्वत: ही घन्टी पर पड़ गये, आज उसका पुरूषत्व जाग उठा।
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