Posted on जुलाई 9, 2009 by डा. राष्ट्रप्रेमी
गौरव
लगभग तेरह वर्ष पूर्व में होडल (फरीदाबाद) के एक स्कूल में वाणिज्य-प्रवक्ता के रूप में पढ़ाया करता था। कभी-कभी खाली कालांश में हैडमास्टर साहब दसवीं कक्षा में हिन्दी के कालांश में भेज दिया करते थे। उस कक्षा में एक दिन मैंने बच्चों को समझाया कि यदि कोई छात्र सीखना चाहता है तो वह अवश्य ही सीख लेगा, भले ही अध्यापक सिखाने से इन्कार करे। विद्यार्थी को चाहिए कि वह अध्यापक के पीछे पड़ जाय। अन्तत: उसे सफलता मिलेगी ही।
लगभग एक माह बाद जब पुन: मुझे उस कक्षा में जाने का अवसर मिला तो पिछली बार कक्षा में मैंने क्या बातचीत कीं थीं मैं भूल चुका था। मैंने पाठयक्रम का कोई बिन्दु लेकर चर्चा की। उसी कक्षा में एक छात्रा थी वर्षा। वह कक्षा की ही नहीं पूरे विद्यालय का गौरव थी। जब मैंने अपनी चर्चा का समापन किया तो वर्षा ने खड़े होकर एक प्रश्न किया। घंटी बज चुकी थी। मैंने यह कहते हुए कि अब यह प्रश्न अपने विशयाध्यापक से पूछना, मैंने कक्षा में और समय देने से इन्कार कर दिया व कक्षा से बाहर आ गया। जब मैं अगला कालांश लेने कक्षा 12 की तरफ जा रहा था, मुझे मालुम हुआ वर्षा मेरे पीछे चली आ रही है। मैंने उसे डाँटने के अन्दाज में पूछा, `क्या बात है वर्षा ?´
वह बड़ी ही शालीनता से बोली, `मुझे अपने प्रश्न का उत्तर चाहिए सर, जब तक आप सन्तुष्ट नहीं करेंगे, मैं आपके पीछे ही चलती रहूँगी भले ही मुझे आपके घर पर जाना पड़े।´ फिर वह कुछ रूकी और बोली, `सर, पिछली बार आपने ही तो कहा था कि यदि किसी से कुछ ज्ञान प्राप्त करना हो तो उसके पीछे पड़ जाओ, जब तक उस ज्ञान को प्राप्त न कर लो।´ मैं उस छात्रा की प्रत्युत्पन्नमति को देखकर हैरान रह गया, कौन ऐसा शिक्षक होगा जो ऐसी छात्रा को पढ़ाकर गौरव की अनुभूति न करे। मुझे अगला कालांश कक्षा 12 में वाणिज्य का पढ़ाने से पूर्व उसे उसकी समस्या का समाधान सुझाना पड़ा।
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Posted on जुलाई 9, 2009 by डा. राष्ट्रप्रेमी
छोटी जेल
`पापा जेल किसे कहते हैं?´ सातवीं कक्षा के विद्यार्थी दीपक ने पूछा। दीपक के पापा ने समझाया, “बेटे, जो व्यक्ति अपराध करते हैं, उन्हें पकड़कर जेल में डाल दिया जाता है। वे जेल से बाहर नहीं आ सकते घूम-फिर नहीं सकते। जेल के अधिकारियों की मार खानी पड़ती है। अधिकारी जो कार्य बताते हैं वही करना पड़ता है।´´
`पापा मैं समझ गया। जेल हमारे स्कूल की तरह होती होगी। हमारे स्कूल में भी तो सुबह सात बजे से शायं पाँच बजे तक बन्द कर दिया जाता है हमें। मास्टरजी सुबह ग्रुप में पढ़ाते हैं, उसके बाद स्कूल लगता है, शायं को फिर ग्रुप में पढ़ाते हैं। उनके मन में जो आता है, काम बता देते हैं, भले ही हमारी समझ में न आया हो।
जब हम नहीं सुना पाते तो मास्टर जी की मार खानी पड़ती है। स्कूल के गेट पर ताला लगाकर गेटमैन बैठा होता है। ठीक इसी प्रकार बड़ो की जेल होती होगी। बड़ो की बड़ी जेल व बच्चों की छोटी जेल यानी स्कूल किंतु वहाँ ग्रुप फीस व ट्युशन फीस तो नहीं देनी पड़ती पापा।´´ दीपक के पापा को कोई उत्तर नहीं सूझ रहा था।
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Posted on जुलाई 9, 2009 by डा. राष्ट्रप्रेमी
बिल्ली
मैं शाम को खाना खाने के बाद प्रतिदिन टहलने जाया करता था। उस दिन दो साथी अध्यापक भी मेरे साथ थे, जिनमें से एक चालीस-पैंतालीस वर्षीय समझदार व सहयोगी प्रवृत्ति के व्यक्ति थे। उनके लड़के भी जवान होने को थे। मैं उनका काफी सम्मान करता था। हम तीनों एक गली में से गुजर रहे थे कि वे अचानक बोल पड़े, बिल्ली।
मैं आस-पास की दीवारों पर देखने लगा किन्तु मुझे बिल्ली कहीं भी दिखाई न दी। उसी समय दूसरे साथी हँस पड़े। वे दोनों हँसे जा रहे थे। मेरी समझ में नहीं आया कि मुझे बिल्ली दिखाई नहीं दी तो वे हँस क्यों रहे हैं? माजरा कुछ और ही था, जो मास्टर जी ने मुझे इशारे से समझाया। सामने से तीन-चार स्त्री-पुरूष आ रहे थे, जिनमें से एक शादी-शुदा लड़की भी थी। मास्टर जी ने उसी को बिल्ली कहा था, उन्होंने यह भी बताया कि वह उनकी पुरानी सहेली है।
मैं मास्टरजी की इस हरकत को देखकर आश्चर्यचकित रह गया। मुझे उनसे यह आशा न थी। वह बेचारी लड़की जिसे उन्होंने बिल्ली कहा था, परेशान-सी सिर झुकाये, दीवार से सटकर निकल गई। मेरे मस्तिष्क में प्रश्न उठा कि शिक्षक ही ऐसी हरकत करते हैं तो किशोरों का क्या दोष?
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Posted on जुलाई 9, 2009 by डा. राष्ट्रप्रेमी
नजरिया
साक्षात्कार के समय प्रबन्धक महोदय ने स्पष्ट कहा था, “हमारे यहाँ ट्यूशन नहीं पढ़ाने देते।´´ और उसने सहर्ष स्वीकार कर लिया था, क्योंकि वह स्वयं ही ट्यूशन को अच्छा नहीं मानता था। विद्यार्थियों को पूर्ण निष्टा व परिश्रम के साथ पढ़ाना ही उसे पसन्द था।
कार्यभार संभालने के तीसरे दिन उसे प्रधानाचार्य के कार्यालय में बुलाया गया, जहाँ प्रबन्धक, उपप्रबन्धक व सचिव महोदय विराजमान थे। आदेश हुआ, “मास्टर जी, आपको मैनेजर साहब के बच्चों को पढ़ाना है।´´ वह आश्चर्यचकित होकर बोला, “किन्तु सर, आपने ट्यूशन के लिए मना किया था?´´
जबाब प्रबन्धक महोदय ने ही दिया, “ इस विद्यालय के बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने के लिए मना किया गया था किंतु हमारा बच्चा पानीपत में पब्लिक स्कूल में पढ़ने जाता है।´´
वह हक्का-वक्का रह गया। प्रबन्धक महोदय का नजरिया उसके समझ में नहीं आ रहा था। जब प्रबन्धक महोदय के बच्चे को बीस किलोमीटर दूर प्रतिष्ठित पब्लिक स्कूल में पढ़कर भी ट्यूशन की आवश्यकता पड़ सकती है तो स्थानीय स्कूल के ग्रामीण बच्चों को क्यों उससे बंचित करने का प्रयास किया जाता है?
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Posted on जुलाई 9, 2009 by डा. राष्ट्रप्रेमी
पछतावा
उसके तीन लड़कियाँ व दो लड़के थे। मेहनत-मजदूरी व कुछ पैतृक जमीन पर खेती करना ही उसकी आजीविका के साधन थे। बड़ा लड़का पढ़ने में तेज था। उस लड़के को लेकर उसकी उम्मीदें बढ़ गईं। उसको लेकर वह ऊँचे-ऊँचे सपने देखने लगा। उसे अंग्रेजी पद्धिति से शिक्षा दिलाने में अपनी सारी शक्ति लगा दी। लड़का सामान्यत: पढ़ता गया व निरन्तर प्रगति करता रहा। माध्यमिक शिक्षा तक तो खर्चो की पूर्ति मेहनत-मजदूरी के बल पर होती रही। वह जितना परिश्रम कर सकता था किया, किन्तु उच्च शिक्षा के खर्चे अधिक थे। इधर छोटे लड़के-लड़कियों का खाने व पहनने का खर्चा तो था ही।
उच्च शिक्षा के खर्चो की पूर्ति मेहनत-मजदूरी के बल पर संभव न थी। उसका विचार था कि यदि एक लड़का पढ़-लिख कर अच्छा पद पा गया तो छोटे भाई-बहनों को तो कोई कमी रहेगी ही नहीं। घर का स्तर ही सुधर जायेगा। अत: बड़े लड़के की उच्च शिक्षा हेतु उसने अपनी पैतृक जमीन ही बेच दी।
लड़का काबिल था, पैसे का सही उपयोग किया। उच्च शिक्षा प्राप्त कर आई.ए.एस. परीक्षा उत्तीर्ण की और जिलाधिकारी बन गया। उसके पास किसी चीज की कमी न रही। सारी सुख-सुविधाएँ उसके कदमों में थीं। अत: वह उन्हीं में रम गया, पीछे मुड़कर देखने की फुर्सत कहाँ थी उसे।
उसने बड़े लड़के को अधिकारी बनाने के सपने देखे थे, जो पूरे हुए किन्तु अब तो उसके दर्शन भी सपने में ही होते थे। अधिकारी पर अधिक काम रहता है। उसे अपने कार्य से फुर्सत ही कहाँ, जो अपने भाई-बहनों व माँ-बाप की ओर देखता।
उसका शरीर जर्जर हो चुका था। मजदूरी करने की शक्ति न थी। पैतृक जमीन बेची जा चुकी थी। परिवार के लिए दो जून का खाना जुटाना मुश्किल था। आज उसे महसूस हो रहा था कि उसने छोटे बच्चों के साथ अन्याय किया है। वह पछता रहा था काश! मैं बड़े को पढ़ाने पर इतना जोर न देता। पत्नी कहती, अब पछताने से क्या होगा? मैंने पहले ही कहा था, लड़के को अंग्रेजी शिक्षा मत दिलवाओ। कम से कम वह घर रहकर खेती तो करता, मजदूरी करके कुछ न कुछ तो लाता। अपने पास तो रहता।
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