पछतावा
उसके तीन लड़कियाँ व दो लड़के थे। मेहनत-मजदूरी व कुछ पैतृक जमीन पर खेती करना ही उसकी आजीविका के साधन थे। बड़ा लड़का पढ़ने में तेज था। उस लड़के को लेकर उसकी उम्मीदें बढ़ गईं। उसको लेकर वह ऊँचे-ऊँचे सपने देखने लगा। उसे अंग्रेजी पद्धिति से शिक्षा दिलाने में अपनी सारी शक्ति लगा दी। लड़का सामान्यत: पढ़ता गया व निरन्तर प्रगति करता रहा। माध्यमिक शिक्षा तक तो खर्चो की पूर्ति मेहनत-मजदूरी के बल पर होती रही। वह जितना परिश्रम कर सकता था किया, किन्तु उच्च शिक्षा के खर्चे अधिक थे। इधर छोटे लड़के-लड़कियों का खाने व पहनने का खर्चा तो था ही।
उच्च शिक्षा के खर्चो की पूर्ति मेहनत-मजदूरी के बल पर संभव न थी। उसका विचार था कि यदि एक लड़का पढ़-लिख कर अच्छा पद पा गया तो छोटे भाई-बहनों को तो कोई कमी रहेगी ही नहीं। घर का स्तर ही सुधर जायेगा। अत: बड़े लड़के की उच्च शिक्षा हेतु उसने अपनी पैतृक जमीन ही बेच दी।
लड़का काबिल था, पैसे का सही उपयोग किया। उच्च शिक्षा प्राप्त कर आई.ए.एस. परीक्षा उत्तीर्ण की और जिलाधिकारी बन गया। उसके पास किसी चीज की कमी न रही। सारी सुख-सुविधाएँ उसके कदमों में थीं। अत: वह उन्हीं में रम गया, पीछे मुड़कर देखने की फुर्सत कहाँ थी उसे।
उसने बड़े लड़के को अधिकारी बनाने के सपने देखे थे, जो पूरे हुए किन्तु अब तो उसके दर्शन भी सपने में ही होते थे। अधिकारी पर अधिक काम रहता है। उसे अपने कार्य से फुर्सत ही कहाँ, जो अपने भाई-बहनों व माँ-बाप की ओर देखता।
उसका शरीर जर्जर हो चुका था। मजदूरी करने की शक्ति न थी। पैतृक जमीन बेची जा चुकी थी। परिवार के लिए दो जून का खाना जुटाना मुश्किल था। आज उसे महसूस हो रहा था कि उसने छोटे बच्चों के साथ अन्याय किया है। वह पछता रहा था काश! मैं बड़े को पढ़ाने पर इतना जोर न देता। पत्नी कहती, अब पछताने से क्या होगा? मैंने पहले ही कहा था, लड़के को अंग्रेजी शिक्षा मत दिलवाओ। कम से कम वह घर रहकर खेती तो करता, मजदूरी करके कुछ न कुछ तो लाता। अपने पास तो रहता।
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