Posted on जून 15, 2010 by डा. राष्ट्रप्रेमी
सरकारी सज्जनता?
उसने अपने मित्र को अपने एक अधिकारी की सज्जनता का बखान करते हुए कहा, “बड़े ही सज्जन पुरुष हैं। मैंने अपने जीवन में इतने सज्जन अधिकारी दूसरे नहीं देखे।´´
मित्र ने उत्सुकता से उनकी ओर देखा तो उन्होंने बात आगे बढ़ाई, `उनके समय में हम अपनी इच्छानुसार काम करते थे, जब काम में मन न लगता बाहर निकल जाते। याद नहीं आता कभी सुबह कार्यालय के लिए देर से आने पर भी उन्होंने कभी डॉट लगाई हो।.
एक बार मोहन के पिताजी बीमार पढ़ गए और मोहन 18 दिन घर रहा, वापस आने पर उससे हस्ताक्षर करवा लिए, बेचारे की 18 दिन की छुट्टी बच गईं।
एक बार सद्य: ब्याहता महिला कर्मचारी के पति पहली बार उससे मिलने आये तो न केवल उस महिला को अपने पति के साथ दो दिन घूमने के लिए भेज दिया, वरन सरकारी गाड़ी भी उनके साथ भेज दी ताकि वे एन्जॉय कर सकें।
उनका मित्र सरकारी सज्जन की सरकारी सज्जनता की कहानी सुनकर गदगद हो गया और उसके मुंह से निकला काश! ऐसे सज्जन अधिकारी के अधीन कार्य करने का मौक़ा मिलता।
Filed under: Uncategorized | 2 Comments »
Posted on जून 14, 2010 by डा. राष्ट्रप्रेमी
त्वरित सुनवाई?
सत्यप्रिय केन्द्र सरकार द्वारा संचालित संस्थान में कार्यरत था। उसकी सच बोलने, ईमानदारी, निडरता व निष्ठा से कार्य करने की आदत से उसका बॉस काफी परेशान था। वह समय-समय पर अपने बॉस की अनियमित, जनहित के विरूद्ध व भ्रष्टाचार में लिप्त गतिविधियों की जानकारी उच्चाधिकारियों को देता रहता था। किन्तु उसके द्वारा सप्रमाण की गईं शिकायतों पर भी उच्चाधिकारियों द्वारा कोई कार्यवाही नहीं की गई।
उसके सहकर्मी, उसका बॉस और उच्चाधिकारी कई बार उसे समझा चुके थे कि वह व्यावहारिक बने, किन्तु वह चाहकर भी अपने को सुधार न पाया। सच बोलना, ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठा को छोड़कर अधिकारीनिष्ठ न बन सका।
समय चक्र चलता रहा। वह विभाग का वरिष्ठतम् कर्मचारी हो गया। संस्थान के नियमों के अनुसार चैकों पर हस्ताक्षर करना, भोजनालय व भण्डार की देखभाल, विभिन्न अभिलेखों का प्रमाणन व बॉस की अनुपस्थिति में स्थानापन्न के रूप में संस्था का सुचारू संचालन उसके कर्तव्यों में समाहित हो गया।
वह सत्यनिष्ठा व ईमानदारी के साथ अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने लगा। संस्थान से होने वाली विभिन्न चोरियां रूक गईं। यहां तक कि बॉस के यहां जाने वाली सामग्री भी प्रत्यक्षत: बन्द हो गई। यह अलग बात थी कि उसके सुनने में आ रहा था कि भोजनालय में कार्यरत कुछ कर्मचारी चोरी-छिपे खाद्य-सामग्री बॉस के घर पहुंचाते हैं। सामान्य धारणा यह थी कि उस पर प्रभार आने पर 70 प्रतिशत चोरियां रूक गईं हैं।
रविवार का दिन था। अवकाश के कारण सत्यप्रिय प्रात: भ्रमण के कारण कुछ देर से निकला था। अपने आवास से निकलते ही उसकी दृश्टि दूर से ही मैस के दरवाजे से निकलते एक मैस कर्मचारी पर पड़ी, जिसके हाथ में एक थैला था। मैस कर्मचारी ने सत्यप्रिय को देखते ही थैला पास की झाड़ियों में छिपा दिया और स्वयं वहां टहलने का नाटक करने लगा। सत्यप्रिय का शक यकीन में बदल गया और भ्रमण पर जाने की अपेक्षा वह उस कर्मचारी के पास गया और झाड़ियों में से थैला निकलवाकर थैला सहित कर्मचारी को स्टोरकीपर के पास ले गया। दो-चार अन्य सहकर्मियों की उपस्थिति में थैले की तलाशी ली गई तो उसमें दूध की दो थैली निकलीं।
पूछताछ करने पर मैस कर्मचारी ने स्पष्ट रूप से स्वीकार किया कि वह साहब के आदेश से साहब के घर दूध देने जा रहा था। सत्यप्रिय के सहकर्मियों ने सत्यप्रिय को ही समझाया कि साहब के घर पहले भी सामान जाता रहा है। उसके द्वारा उच्चाधिकारियों को शिकायत करने पर भी कोई कार्यवाही नहीं होगी। मैस कर्मचारी को वापस भेज दिया गया। सत्यप्रिय समझ गया, उसके सहकर्मियों में से कोई भी साहब के विरूद्ध गवाही देने को तैयार न था। मजबूरन् वह भी प्रात: भ्रमण पर निकल गया।
दूसरे दिन जब वह कार्यालय पहुंचा, उसके बॉस ने संभागीय कार्यालय से फैक्स पर मंगाया गया निलम्बन आदेश थमाकर उसे कार्यमुक्त कर दिया गया। उसे पता चला कि जो कर्मचारी दूध ले जाते हुए पकड़ा था, उस सहित मैस में कार्यरत सभी कर्मचारियों ने लिखकर दिया है कि वह अपने यहां दूध पहुंचाने के लिए कर्मचारी को मजबूर कर रहा था और उसने मैस कर्मचारियों को गाली-गलोच भी की।
वह मुस्कराकर संभागीय कार्यालय की इस त्वरित कार्यवाही पर विचार करता हुआ अपने अगले गन्तव्य की ओर चल पड़ा।
Filed under: Uncategorized | Leave a comment »
Posted on जून 13, 2010 by डा. राष्ट्रप्रेमी
ईमानदार?
ईमान जब से अपने कार्यालय में वरिष्ठतम् कर्मचारी बना था। कार्यालय का वातावरण ही बदला हुआ सा प्रतीत होता था। ईमानदारी से कार्य करने की उसकी आदत के कारण संस्थान के आपूर्तिकर्ता ही नहीं, उसके बॉस भी उससे परेशान थे।
ईमान संस्थान में आने वाली प्रत्येक आपूर्ति की मात्रा व गुणवत्ता की जांच टेण्डर में दी गई ‘शर्तो व सेम्पल के अनुसार करता था। कई बार निम्न गुणवत्ता होने के कारण सामान वापस भी किया था। कम मात्रा में सामान आने के कारण बिल में काट-पीट होना तो सामान्य बात थी। आपूर्तिकर्ता ईमान से झगड़ते व विभिन्न प्रकार की धमकियां देते। बॉस भी संकेतों से कई बार ईमान को कह चुके थे कि वह आपूर्तिकर्ताओं को परेशान न किया करे। ईमान समझ ही न पाता था कि जब हम अच्छी गुणवत्ता का पूरा भुगतान कर रहे हैं तो सामान को जांच-परख कर लेने में क्या बुराई है?
एक दिन ईमान के बॉस ने उसे अपने चेम्बर में बुलाया और बुरी तरह डांटने लगे, “तुम अपने आपको ज्यादा ईमानदार समझते हो? तुम्हारे सिवा संस्थान के सारे कर्मचारी बेईमान हैं क्या? तुम ईमानदारी का मतलब भी समझते हो? तुम्हारी दृष्टि में मैं बेईमान हूं? ईमानदारी का मतलब आर्थिक मामलों में ईमानदारी से ही नहीं होता। दो पैसे लेने से आदमी बेईमान नहीं हो जाता। मैं अपने परिवार के लिए पूरी तरह से ईमानदार हूं। अपनी बीबी व बच्चों की सारी जरूरतें पूरी करता हूं। भले ही इसके लिए मुझे कुछ भी करना पड़े। अपने घर में अपनी बीबी-बच्चों को तो खुश रख नहीं सकते। ईमानदारी के पीछे लठ लिए फिरते हो। ईमानदारी किसे कहते हैं? समझते भी हो?´´
बॉस की ईमानदारी की विचित्र व नई परिभाषा सुनकर ईमान हक्का-बक्का रह गया।
Filed under: Uncategorized | Leave a comment »
Posted on जून 8, 2010 by डा. राष्ट्रप्रेमी
यूज एण्ड थ्रो
उसके हाथ में, उसकी आधुनिक प्रेमिका उमा का पत्र था, हां, उसी उमा का, जिसके पत्र को पाकर वह फूला नहीं समाता था, जिसकी आवाज को टेलीफोन पर सुनकर उसका अंग-अंग बोलने लगाता था। आज उसी के पत्र को पाकर जैसे उसके प्राण ही निकल गये थे।
वह पत्र को हाथ में लिए हुए ही, स्मृतियों में खो गया। उसे याद आने लगे उसके वे पत्र जिनमें वह लिखती थी, `मैंने, तुम्हें देर से सही, किन्तु सोच-समझकर स्वीकार किया है। मैं केवल तुम्हारी हूं और किसी की तरफ देखने की तो क्या चलती है, सोच भी नहीं सकती और भी न जाने क्या-क्या?…….. वह उस पत्र में ही डूब गया। उसके बाद उसे वह पत्र याद आया, जिसमें लिखा था, “न मालुम मुझमें क्या बात है( लोग मेरी और आकर्षित क्यों होते हैं?) मैं जहां भी जाती हूं, वहीं आकर्षण का केन्द्र बन जाती हूं। मुझसे सभी बात करना चाहते हैं और मुझे सहयोग देते हैं।´´
वह स्मृतियों में डूबा हुआ भी मुस्करा पड़ा, `ठीक ही तो लिखा था। उसी आकर्षण के बंधन में तो मैं आज भी बंधा हुआ हूं।´ उसके बाद वह उस पत्र की स्मृतियों में खो गया जिसमें उसने लिखा था, `तुम मुझे चैलेंज मत करना। मैंने आज तक जिस व्यक्ति और वस्तु को चाहा है, उसे प्रयोग करके फेंक दिया है।´
वह विचार मग्न हो गया। सही ही तो लिखा था, उसने मुझे भी उसने अपनी इच्छानुसार भोगा और जब मन भर गया लिख दिया, “मैं इस प्रेम-व्रेम के रोग को नहीं पालती,प्रेम एक बकवास शब्द है। मुझे तुमसे कोई लेना-देना नहीं। मैं तुमसे अब मिलना भी नहीं चाहती। मुझे शान्ति से जीने दो। मेरा पीछा छोड़ो।´´
वह उन विषाद के क्षणों में भी मुस्करा पड़ा, `मुझे तो इसी में सन्तुष्टि है, कुछ क्षणों, कुछ पलों या कुछ दिनों के लिए ही सही, तुमने मुझे चाहा तो! तुम्हारा दोष ही क्या है?’ यह जमाना ही `यूज एण्ड थ्रो´ का है।´ विचार करते हुए वह पुन: उसी पत्र को पढ़ने लगा।
Filed under: Uncategorized | Leave a comment »
Posted on जून 7, 2010 by डा. राष्ट्रप्रेमी
प्रवचन
`ये सन्त दारू पीते हैं और भी न जाने क्या-क्या करते हैं’ मैं अपने छात्र/छात्राओं से कहती हूं कि इनकी बातों में क्या रखा है? इनसे अच्छे प्रवचन तो मैं दे लेती हूं।´ एक शिक्षिका महोदया अपने शिक्षक साथी से सी.बी.एस.ई. के एक मूल्यांकन केन्द्र पर मूल्यांकन कार्य करते हूए कह रहीं थीं।
थोड़ी देर उपरान्त वही शिक्षिका महोदया उनसे मुखातिव हुईं, `सर! मैं अपने भाई के यहां ठहरी हूं। किसी होटल वाले से होटल में ठहरने का बिल बनवा दीजिए ना। सी.बी.एस.ई. से होटल का खर्चा तो लेना ही है।´ शिक्षक को उनका प्रवचन समझ में आ गया।
Filed under: Uncategorized | 1 Comment »