खूनी होली

गहन अन्धकार है गहन! लगता है प्रकाश ही कहीं खो गया है। अन्दर अन्धकार है, बाहर अन्धकार। सचमुच उसके जीवन में अन्धकार ही अन्धकार है। प्रकाश की खोज में वह कहां-कहां नहीं भटकीर्षोर्षो वह दर-दर भटकी, भटकती रही, इतनी भटकी कि भटकते-भटकते थक गई किन्तु भटकने का अन्त नहीं आया. उसे उसका प्रकाश नहीं मिला। मिला, हां, मिला। क्या वही प्रकाश था? नहीं, नहीं, वह प्रकाश नहीं था। प्रकाश तो उसे दूर से ही देखकर दौड़कर गले से लगा लेता। वह तो अन्धकार में प्रकाश का साया मात्र था, जो दौड़कर आता हुआ दिखा किन्तु जैसे ही मैंने हाथ बढ़ाया वह अन्धकार में विलीन हो गया।
वही प्रकाश जो कहता था कि उसे कभी नहीं छोड़ेगा। वही प्रकाश, जो उसके लिए अपने मां-बाप को छोड़कर चला आया था और उससे शादी की थी। कितने सुखों को छोड़कर आया था वह उसके साथ? क्या नहीं था उसके घर? सभी कुछ, सभी सुख-सुविधाएं, कोठी, बंगला, गाड़िया…..अच्छा-खासा बिजनिस।
“मां…. मां सुनती नहीं मां, आज होली है।” जैसे नीन्द में से जगी हो। क्या कहा? आज होली है। आज होली नहीं हो सकती। क्या सचमुच होली है? फिर आ गई, यह शायद तीसरी होली है। जब प्रकाश मुझसे यह कहकर गया था, ` कविता चिन्ता न करो। मैं शीघ्र आऊंगा। अब तो रण में होली खेलने का समय है, शत्रु के रक्त से हाली खेलने का समय है, खूनी होली खेलने का समय है। शत्रुओं ने सीमा पर युद्ध प्रारम्भ कर दिया हो, जब देश की सीमाओं की सुरक्षा की बात हो, तब मैं रंग से होली खेलूं यह कैसे हो सकता है? नहीं, कविता नहीं, यह रंग से होली खेलने का समय नहीं है। यह तो खूनी होली खेलने का समय है। देश की आन की बात है। मैं सच कहता हूं, शत्रुओं को नाकों चने चबाने पड़ेगें।´ और मैंने भी उन्हें नहीं रोका था। मुझे रोकने का अधिकार ही क्या था? जो मैं उन्हें रोकती। देश को जब उनकी जरूरत थी। भारत माता उन्हें पुकार रही थी। मैं कैसे रोक सकती थी? और मेरे रोकने से वे रूकते भी कैसे?
चलते समय मैंने कहा था, `जल्दी लौटना, अधिक समय न लगाना।´ तो क्या कहा था? हां उन्होंने कहा था, `तुम क्या समझती हो मुझे तुम्हारी याद नहीं आती। तुम्हारे बिना एक-एक पल कैसे गुजरता है? यह मैं ही जानता हूं। मैं शीघ्र आऊंगा। अगली होली पर तुम्हारे साथ होली जो खेलनी है।´ और वे चले गए थे। पाकिस्तान से लड़ाई चलती रही, मैं इन्तजार करती रही कि जंग फतह करके वे शीघ्र आयेंगे। मैं इन्तजार करती रहीं किन्तु उनका पत्र भी प्राप्त नहीं हुआ। हां, आया। उनका पत्र आया। होली से लगभग एक महीने पहले उनका पत्र आया था, `कविता अब लड़ाई बन्द होने वाली है। मैं होली पर तो अवश्य ही तुम्हारे पास पहुंच जाऊंगा। खूब रंग लगाऊंगा, खूब। तुम्हें रंग से तरबतर कर दूंगा।
होली आई किन्तु वे नहीं आए। हां, आए तो थे,शाम को ही दरवाजे पर गाड़ी आकर रूकी थी। मैं चीख पड़ी थी, `अरे यह क्या? मेरा प्रकाश इस दशा में? नहीं…..नहीं…. तुम तो मुझसे होली खेलने आए हो। मेरे साथ होली खेलो। तुम मुझे इस तरह अकेली छोड़कर नहीं जा सकते, और वे मुझे अकेली छोड़कर सदा के लिए चले गए। होली फिर आ गई…..क्या करेगी होली आकर…अब क्या लेगी वह मुझसे… क्या है मेरे पास? मेरे प्रकाश को मुझसे छीनकर मेरा जीवन अन्धकारमय कर दिया। अब फिर क्यों आ गई? अरे ! अरे!! मैं यह क्या सोच रही हूं? मुझे गर्व होना चाहिए कि मेरा प्रकाश राष्ट्र की सेवा में समर्पित हो गया। मां भारती का एक पुत्र मां भारती की रक्षा में काम आया था, इसी होली पर। मैं वीर पुरूष की पत्नी होकर कायरों की भांति विलाप कर रही हूं? प्रकाश की याद में मुझे होली को मनाना चाहिए। हां, हां, मैं प्रकाश की याद में इस होली को अवश्य मनाऊंगी। मेरे पास सब-कुछ है। मेरे पास प्रकाश की धरोहर है, राष्ट्र की धरोहर है, मेरा बेटा- दिनेश। उसे बड़ा करके मातृभूमि की सेवा में सैनिक बनाकर भेजूंगी। अवश्य भेजूंगी….अभी भारत मां पर संकटो के बादल छाये हुए हैं, देश के अन्दर आतंकवाद है तो सीमा भी अभी महफूज नहीं हैं। मैं प्रकाश के बलिदान को व्यर्थ नहीं जाने दूंगी। मेरा बेटा दिनेश देश की रक्षा करेगा। वह अवश्य ही एक अच्छा सैनिक बनेगा…. अपने पिता के आदर्शों पर चलेगा। जाओगे न बेटे दिनेश .. भारत माता की सेवा में एक सैनिक बनकर। हां, अवश्य जाना, अवश्य…..। दिनेश कविता को झकझोरता है, मां, मां मैंने कितनी देर से कहा है, आज होली है, मुझे रंग चाहिए। मुझे होली खेलनी है मां, मुझे रंग देदो। `नहीं, बेटे रंग से होली नहीं खेलते। तुम तो बहादुर बेटे हो ना….!! हो, बोलो, हो ना। तुम बड़े होकर सैनिक बनना और देश के दुश्मनों के खून से होली खेलना। वही पवित्र होली होगी…..वही।

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