सन्तोषी सदा सुखी

सन्तोषी सदा सुखी

एक मुकुन्दपुर नाम का एक गाँव था। गाँव के पास ही एक कच्ची सड़क थी वह सड़क ही मुख्यत: वहाँ से आने जाने का एक साधन थी। उसी गाव में राधा नाम की एक औरत रहती थी, बेचारी के एक बेटा था। वह दिन भर कड़ा परिश्रम करती तब जाकर खाने पीने की व्यवस्था कर पाती। खाने-पीने के बाद धन बचाकर बच्चे की पढ़ाई में लगा देती। इसी प्रकार मेहनत करके उसने अपने बेटे को हाईस्कूल करा दिया था। उसके बेटे का नाम था रमेश। रमेश भी पढ़ने में मेहनती था अत: वह चाहती थी कि उसका बेटा खूब पढ़े और एक बड़ा आदमी बने।रमेश को पढ़ाने के लिये राधा ने और अधिक काम करना प्रारम्भ किया और जैसे तैसे रमेश को पढ़ने के लिये शहर भेज दिया। रमेश शहर में जाकर कालेज में पढ़ने लगा। उसकी माँ महीने के महीने पैसे भेज देती। इसी प्रकार रमेश ने बी.ए. किया और एक दिन उसकी नौकरी भी लग गयी।राधा को जब यह पता लगा रमेश की नौकरी लग गयी है उसकी प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। अब उसके सपने पूरे होने का समय जो आया था। वह सोच रही थी कि अपने बेटे की धूमधाम से शादी करेगी। घर में एक बहू आयेगी तो उसे भी कुछ आराम मिलेगा।
राधा एक दिन बैठी पड़ोसिन से बातें कर रही थी कि उसका बेटा कितना अच्छा है? नौकरी लग गयी है———आदि। उसी समय डाकिया ने उसको एक पत्र दिया जो रमेश का ही था उसमें लिखा था, “माँ मैनें अपने साथ की एक खूबसूरत लड़की से शादी कर ली है।´´ तुम इस बारे में न सोचना। पत्र पढ़ते-2 बेचारी राधा का तो दिल ही टूट गया। बुढ्डी हो गयी जिसकी आशा में उसके भी यही हाल। अब तो बेचारी राधा काम करने लायक भी नहीं रही। क्या करेगी वह। वह कई दिन तक अपने घर में बैठी-2 रोती रहती कई दिन तो घर से बाहर भी न निकली। उसके चार-पाँच दिन तो बीत गये बिना कुछ खाये पीये।
एक दिन एक साधू भिक्षा माँगते-2 आया तो उसने बुढ्ढी को रोते हुये देखा। साधू ने राधा से पूछा कि वह क्यों रो रही है तो उसने उसे सारा दुख कह सुनाया। साधू ने कहा, “धीरज रखो रोने से क्या होगा,´´ सन्तोश रखो सन्तोशी सदैव सुखी रहता है। यह कहकर वह चला गया। साधू के चले जाने पर वह गाँव से बाहर सड़क के किनारे झोंपड़ी में रहने लगी। वह वहाँ से गुजरने वालों को पानी पिलाती। कुछ समय बाद वह स्थान ही प्याऊ के नाम से मशहूर हो गयी। उसे सभी प्याऊ वाली अम्मा कहकर पुकारते वह उसे वहीं खाना दे जाते। वह अब सुखी थी चिन्ता मुक्त थी। वह सभी से कहती बेटा “सन्तोषी सदा सुखी
´´

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हमने परिक्रमा की मर्यादा को बनाये रखा….

मर्यादा

मैं अक्सर यही सोचता रहता हूँ कि आजकल के लड़के लड़कियों का जो व्यवहार है,उसे चारत्रिक पतन कहूँ या आधुनिकता! कभी-कभी सोचने लगता हूँ कि यह वक्त का फेर ही है, ऐसा ही होता है उस आयु में। कभी-कभी सोचता हूँ यह विकृत शहरी संस्कृति का परिणाम है,गाँवों में तो ऐसा संभव ही नहीं। हाँ, शहरों में किशोर व युवा वय के विद्यार्थियों के जीवन में ऐसी घटनाएँ घटित होना आम बात ही है।
उस समय मैं महाविद्यालय का छात्र था। घर में चाची जी से कभी भी पटती न थी। चाचा जी बहुत प्यार करते थे,प्यार तो चाची जी भी कम न करतीं थीं किन्तु न जाने क्यों ? उनका स्वभाव ही कुछ ऐसा था कि कभी भी मुझे अच्छा न लगा। उनके सामने कभी भी मैं अपनी बात खुलकर कह ही नहीं पाता था। घर में यदि घर की मालकिन से ही बना के न रखा जा सके तो उस घर में सुकून से कैसे रहा जा सकता है? अत: परेशान होकर,पिताजी ने किराये पर कमरा लेकर अलग रहने की व्यवस्था कर दी थी। आखिर पढ़ना तो था ही,और गाँव में उच्च अध्ययन की व्यवस्था नहीं थी। कितनी परेशानी होती थी,भोजन बनाने में,झाड़ू लगाने में बर्तन साफ करने में, किन्तु फिर भी प्रसन्न रहता था। स्वतंत्रता जो थी। चाची जी की व्यर्थ की टोका-टाकी से तो मुक्ति मिली।
शहरी जीवन मेरे लिए बिल्कुल नया था। एक नया उत्साह था,स्वतंत्रता का नया आनन्द था किन्तु फिर भी परेशान। मैं अभी तक कभी भी अकेला नहीं रहा था। एकांकीपन जैसे खाने को दौड़ता था। यहाँ तो एकदम अकेला पड़ गया था। कोई परिचित भी न था। प्रथम वर्ष थी अभी कालेज भी रास नहीं आ रहा था। किसी से बात करने में भी डर लगता था,दोस्ती करने की तो बात ही बहुत दूर की कोड़ी थी। इस अपरिचित माहोल में किसी से बात करने का साहस न होता किन्तु अकेला रहना तो उससे भी अधिक मुिश्कल था। अपरिचित माहौल में किसी को परिचित बनाने की ललक थी। प्रबल इच्छा थी कि न केवल परिचित बल्कि एक दोस्त हो,एक हमराज हो जिससे खुलकर बात कर सकँू। जिसके साथ बैठकर घड़ी भर को लगे कि कोई अपना भी है।
सुबह-सुबह का समय था। मैं प्रात:काल उठने में लेट हो गया था। अत: कालेज जाने की तैयारी हड़बड़ी में की क्योंकि सुबह सात बजे से क्लास लगतीं थी। आज मुझे देरी हो गई थी अत: मैं अपने मकान के दरवाजे से लगभग दौड़ने जैसी हालात में बाहर निकला। जल्दी का काम शैतान का,मैं आमे देख ही नहीं पाया था कि अकस्मात किसी से जा टकराया।
मैं घबड़ा गया। वह गिर पड़ी थी। मुझे अपनी लापरवाही का अहसास हुआ,लेकिन अब क्या हो सकता था। मैंने डरते हुए उसे कहा,`सॉरी मैं कुछ जल्दी में था अत: देख नहीं पाया।´ वह जबाब मैं केवल मुस्करा दी,मैं आश्वस्त हुआ अन्यथा डर लग रहा था,लड़की है न जाने क्या बखेड़ा खड़ा कर दे। मुझे कॉलेज जाने की जल्दी थी अत: उससे छुटकारा पाकर रिक्शे पर जाने की इच्छा से सामने देखा ही था कि सामने ही रिक्शा दिखाई दिया। मैं रिक्शे पर बेठ गया तथा रिक्शे वाले से कॉलेज चलने के लिए कहा। रिक्शे वाला चलता उससे पहले ही वह भी आकर उसी रिक्शे पर बैठ गई तथा रिक्शे वाले से बोली, `मुझे भी उधर ही जाना है,जल्दी से चलो´। दुर्भाग्य कहूं या सौभाग्य उसका कालेज भी उसी दिशा में रास्ते ही मैं पड़ता था। मैं कर भी क्या सकता था,एक तरफ सिकुड़ कर बैठ गया। मैं पहले ही एक गलती कर चुका था,अब ऐसी किसी हरकत से बचना चाहता था जिससे वह मुझे बदतमीज समझे।
`क्या नाम है आपका?´ उसकी सुरीली आवाज मेरे कानों में पड़ी। मेरे लिए उसका प्रश्न अनपेक्षित था अत: उसके प्रश्न से चौंका! जैसे-तैसे उत्तर दिया, `आलोक´। उसके बाद तो प्रश्नों की झड़ी ही लग गई, क्या करते हो? कौन सी क्लास में पड़ते हो ? कौन-कौन से सब्जेक्ट हैं? कहाँ रहते हो? मेरी इच्छा हो रही थी कि उससे कह दूँ कि आपको क्या मतलब? किन्तु मेरी हिम्मत नहीं पड़ी और जैसे-तैसे उसके प्रश्नों के जबाब देता गया।
अब तक मैं सामान्य हो चुका था। अब मेरी बारी थी। मैंने पूछा,आपका नाम?
नीतू, उसने मुस्करा कर जबाब दिया। इतना छोटा व प्यारा नाम है आपका। मेरे मुँह से अकस्मात निकल गया।
`वैसे मेरा पूरा नाम नीता भारद्वाज है,घर में प्यार से नीतू कहते हैं´ उसने स्पश्ट किया। तब तक उसका कालेज आ गया था। वह रिक्शे से उतर कर चली गई।
उस दिन अक्षय नवमी थी। मथुरा की पंच-कोसी परिक्रमा लग रही थी। मैंने भी सोचा,खाली बैठे क्या करें आज परिक्रमा ही लगा ली जाय। और मैं बिना अधिक सोच-विचार किये चल पड़ा परिक्रमा लगाने। मैं अकेला तो था ही अपने ही चिन्तन में लीन चला जा रहा था कि तभी मुझे लगा कि कोई मुझे पीछे से पुकार रहा है। मैंने पीछे मुड़कर देखा तो दौड़कर आती हुई नीतू दिखाई दी। उसकी साँसो की गति से लग रहा था कि वर काफी देर से दौड़ रही है।
`कितनी देर से पुकार रही हूं मैं आपको। आप हैं कि बस दौड़ते चले जा रहें हैं जिससे आस-पास कोई और है ही नहीं।´ उसने पास आते हुए उलाहने भरे स्वर में कहा।
`नहीं,दौड़ तो नहीं रहा, आपकी आवाज ही सुनाई नहीं दी´ मैंने झेंपते हुए कहा।
`आप अकेली हैं क्या?´ मैंने प्रतिप्रश्न किया।
`नहीं तो, अकेली कहाँ हूँ,इतने सारे लोग जो हैं और आप भी तो साथ हैं। हाँ,लगता है आप अवश्य अकेले हैं जो इतने लोंगो के बीच में चलते हुए भी बगल वाले का नहीं पता कि बगल में कोई है भी कि नहीं´ उसने दा्र्शनिक अन्दाज में कहा।
नीतू सुन्दर तो थी ही। हँसमुख स्वभाव उसकी सुन्दरता में चार चाँद लगा रहा था। वह जितना खुलकर बात कर रही थी मैं स्वयं भी आश्चर्यचकित था। ऐसा लगता था कि जैसे हम वर्षों से एक दूसरे के साथ रह रहें हों। वह बातों पर बातें किए जा रही थी। मैं उसकी बातों में साथ नहीं दे पा रहा था। केवल हाँ या नहीं कहकर काम चला रहा था। मैं उसी के बारे में सोच रहा था, कैसी लड़की है,`जान न पहचान कूद पड़ा शैतान´।
`आप जूस पियेंगे?´ अचानक उसने पूछा।
`नहीं,मेरी इच्छा नहीं है। आप की इच्छा हो तो पी लें।´ मैंने औपचारिकता पूरी करते हुए कहा।
`इच्छा नहीं है तो न सही। बिना इच्छा के ही पी लो, जरूरी थोड़े ही है कि प्रत्येक कार्य अपनी इच्छा से ही किया जाय। कभी-कभी दूसरों की इच्छा के अनुसार भी चलना चाहिए, और फिर मैं अकेली थोड़े ही पी सकती हूँ। चाहिए तो यह था कि आप स्वयं मुझे आग्रहपूर्वक जूस पिलाते,आखिर एक लड़की आपके साथ चल रही है और आप हैं कि उसे एक गिलास जूस के लिए ऑफर नहीं कर सकते। ऑफर करना तो दूर की बात उसके ऑफर को भी ठुकराने के लिए तैयार बैठे हैं। कैसे लड़के हैं आप? अब एक शब्द भी नहीं सुनूँगी चुपचाप मेरे साथ दुकान पर आओ।´आदेश देती हुई जूस की दुकान की ओर मुड़ गई। मेरे पास उसका अनुकरण करने के सिवा कोई चारा न था।
जूस पीते-पीते उसकी दृष्टि परिक्रमा मार्ग के किनारे पत्थर के टुकड़ों से बनाई गई छोटी-छोटी आकृतियों की ओर गया। जिनको इकट्ठा करके एक घर की रूपरेखा बनाने की कोिशश की गई थी। मेरा ध्यान उस ओर आकर्शित करके उसने पूछा,`यह क्या है? क्या तुम जानते हो?´
मैंने इन्कार करते हुए सिर हिला दिया,`नहीं तो।´
उसने बिना मेरे प्रति-प्रश्न के स्वयं ही बताना प्रारंभ कर दिया,`यह परिक्रमार्थियों द्वारा बनाये गये घर हैं, ऐसी धारणा है कि परिक्रमा मार्ग में जो इस तरह घर बनाता है। वास्तविक जीवन में उसका घर बन जाता है अर्थात उसका घर बस जाता है।´
मेरे मुँह से अनायास ही निकला, `सच?´
`यह तो नहीं जानती´ उसका जबाब था।
मैंने प्रश्न किया,`तुमने घर बनाया?´
`अभी तो नहीं´ उसने शरमाते हुए जबाब दिया।
`चलो, हम दोंनो भी एक-एक घर बनाते हैं।´ मैंने ऐसे ही मनोविनोद में कहा।
`एक-एक नहीं,एक घर बनाते हैं।´ उसने मुस्कराते हुए कहा और खड़ी हो गई। हम दोंनो थोड़ी दूर तक आगे चले फिर परिक्रमा के रास्ते से एक किनारे हटकर पेड़ो के झुरमुट में जाकर बैठ गये। अब मैं और वह दोंनो के सिवा वहाँ कोई नहीं था। वह बिल्कुल मुझ से सटकर बैठी थी,उसका हाथ मेरी कमर में था। मैं नि:संकोच उसकी काली-काली अलकों में उगँली घुमा रहा था। ऐसे ही जाने कितना समय निकल गया था, पता ही नहीं चला। उसने अपनी दोनों संगमरमरी बाहें मेरे गले में डाल दी थीं। मैंने उसे सीने से लगा लिया था। `मुझे तो संपूर्ण परिक्रमा का पुण्य मिल गया´ उसने चुंबन लेते हुए कहा।
परिक्रमा, परिक्रमा का नाम सुनकर मैं चेतनावस्था में आया। मैं तो परिक्रमा को बिल्कुल भूल ही गया था। अचानक मैंने उसे आलिंगन से अलग करते हुए प्यार से कहा,`घर नहीं बनाओगी,चलो काफी देर हो गई है। अभी परिक्रमा में भी काफी समय लगेगा। और परिक्रमा में यह सब ठीक नहीं।´
मैं खड़ा हो चुका था। वह भी अनमनयस्क सी खड़ी हो गई और अपने कपड़े सभाँलती हुई,कुछ रूठी हुई सी चल दी। हाँ,घर बनाने के लिए,न मैंने उससे कहा तथा न ही उसने और शेश परिक्रमा हमने सामान्य बातें करते हुए पूरी की परिक्रमा के बाद उससे भेंट ही नहीं हुई। मैं आज भी संतुश्ट हूँ कि उस दिन कम से कम हमने परिक्रमा की मर्यादा को बनाये रखा।

उनका हिस्सा भी उसी दिन शायंकाल उनके आवास पर भिजवा दिया

लोकतांत्रिक ईमानदारी

विद्यालय में नवागन्तुक प्राचार्य जी को कार्यभार ग्रहण किये हुए अभी बामुश्किल तीन माह ही हुए थे। वातावरण में एक नवीनता का आभास था। कर्मचारियों तथा छात्र-छात्राओं के मस्तिष्क में एक जिज्ञासा का भाव था क्योंकि अभी तक कोई भी उनकी कार्यपद्धति को नहीं समझ पाया था। उन्होंने कर्मचारियों से एक प्रकार की दूरी बनाए रखी थी। अत: कोई भी उन्हें समझ नहीं पा रहा था। युवा कर्मचारियों को उनसे विद्यालय के विकास की आशा थी तो पुराने वालों का अनुभव बोलता था कि अभी देखते जाइये पक्का घाघ है। लूटकर खायेगा तथा हवा भी नहीं लगने देगा। प्राचार्य अल्पभाशी,मधुर-भाशी व आकर्षक व्यक्तित्व के धनी थे। विद्यालय के अधिकांश कर्मचारियों तथा छात्र-छात्राओं में उनके प्रति सहयोग किये जाने की भावना थी क्योंकि पहली बार उनकी जाति के प्राचार्य आये थे।
उनके आने के बाद यह पहली स्टाफ मीटिंग थी क्योंकि अभी तक स्टाफ मीटिंग न बुलाकर एक प्रकार से वहाँ के वातावरण को ही समझने का प्रयत्न उन्होंने किया था। मीटिंग तीन घण्टे तक चली। उन्होंने सभी कर्मचारियों के साथ बड़े प्रेम से व्यवहार किया तथा बैठक बड़े ही सौहार्द्रपूर्ण वातावरण में संपन्न हुई। उन्होंने कहा,`मैं प्रशासन में पूर्ण लोकतंत्र का हिमायती हूँ। आप लोग नि:सकोच होकर स्पष्ट रूप से समस्याएँ मेरे सामने रखें तथा उसका समाधान सुझायें कि क्या किया जा सकता है? न केवल आपकी बात सुनी जायेगी,बल्कि आपको कार्य करने की पूरी स्वतंत्रता दी जायेगी।´
मीटिंग से निकलते हुए सभी कर्मचारी प्राचार्य जी की भूरि-भूरि प्रशंसा कर रहे थे। एक सृजनात्मक वातावरण का सृजन हो रहा था। मिस्टर गुप्ता स्टॉफ रूम में आकर बैठे ही थे कि विद्यालय का एक लिपिक आया, उसने गुप्ता जी के सामने एक बिल रख दिया। गुप्ता जी को बड़ा आश्चर्य हुआ। विद्यालय में 25000 रुपये का सामान खरीदा गया था। किन्तु बिना भौतिक सत्यापन के वे उस पर हस्ताक्षर कैसे करते। बिल पर भुगतान किया जाय की सील लगी थी तथा प्राचार्य जी द्वारा उसे पास कर दिया गया था। गुप्ता जी धर्म-संकट में फँस गये प्राचार्य जी के पास किये जाने के बाद वे बिल को कैसे रोकें? सामान कहाँ आया?…..कैसा आया?…..उन्हें कुछ पता नहीं, वे कैसे हस्ताक्षर कर दें। उन्हें अब वे सभी सुनी-सुनाई बातें याद आने लगी जिन पर उन्होंने कोई ध्यान नहीं दिया था,जो उन्हें प्रतिदिन सुनने को मिलती थी कि किस प्रकार मैस में से दूध व अन्य राशन सामग्री गायब हो रही थी तथा किस प्रकार पूर्तिकर्ता प्राचार्य जी के मित्र बनते जा रहे थे। गुप्ता जी ने बिल पर हस्ताक्षर करने से इन्कार कर दिया। लिपिक ने पुन: धमकी भरे अंदाज में विनती की सोच लीजिए गुप्ता जी प्राचार्य जी के हस्ताक्षर के बाद बिल को रोका जाना ठीक नहीं है। जब गुप्ता जी ने हस्ताक्षर करने से इन्कार कर दिया तो लिपिक महोदय प्राचार्य कक्ष में चले गये।
गुप्ता जी को विचारमग्न अवस्था में अभी पाँच मिनट भी नहीं हुए थे कि स्टॉफ रूम में चतुर्थ-श्रेणी कर्मचारी ने प्रवेश किया और बताया कि आपको प्राचार्य जी ने याद किया है। गुप्ता जी समझ गये कि उनकी पेशी है। गुप्ता जी प्राचार्य कक्ष में गये उस समय उनका मूड़ उखड़ा हुआ था। प्राचार्य जी ने गुप्ता जी का स्वागत उसी चिर-परिचित मुस्कान के साथ किया किन्तु आज गुप्ता जी को उसकी कृत्रिमता का आभास स्पष्ट हो रहा था जिसे वे आज तक महसूस नहीं कर पाये थे। प्राचार्य जी ने बड़ी मधुर भाषा गुप्ताजी को समझाया, मैं प्राचार्य हूँ इस विद्यालय का, जब मैने बिल को पास कर दिया तो आपको आपत्ति नहीं होनी चाहिए गुप्ता जी। मैंने हस्ताक्षर कर दिये तो आप इन्कार कैसे कर सकते हैं? विद्यालय मुझे चलाना है आप सहयोग कीजिए वरना मुझे उप-निदेशक महोदय से बात करनी होगी। आप प्राचार्य के द्वारा हस्ताक्षरित बिल पर हस्ताक्षर करने से मना करके चेयर की अवहेलना कर रहे हैं। आपकी ए.सी.आर. खराब हो सकती है। आप वरिष्ठ अध्यापक हैं आपको प्रशासनिक नियमों का पता होना चाहिए। आपकी जानकारी के लिए आपको बता दूँ। प्रशासन के क्षेत्र में दो नियम लागू होते है़-
Rule 1:–Boss is always right.
Rule 2:-If there is any confusion, see rule number 1.

गुप्ता जी की अगले वर्ष ही पदोन्नति होने वाली थी। बड़ी आसानी से समझ गये। अत: उन्होंने बिना ना-नूकुर के हस्ताक्षर किये और प्राचार्य कक्ष से बाहर आ गये। प्राचार्य जी बड़े ही ईमानदार आदमी थे तभी तो उन्होंने गुप्ता जी को माफ कर दिया तथा उनका हिस्सा भी उसी दिन शायंकाल उनके आवास पर भिजवा दिया।

काश! काली नदी पर न आता

काली नदी

भानपुर एक छोटा सा गाँव था, वह काली नदी के किनारे स्थित था। भानपुर में मछुए लोग रहते थे। गाँव से कुछ दूर एक तालाब भी था। मछुओं का एकमात्र काम मछली पकड़ना था। मछलियों से ही उनकी जीविका चलती थी। भानपुर के मछुए बड़े परेशान थे, क्योंकि गाँव के बाहर जो काली नदी थी, उस पर परियों का अधिकार था वहाँ कोई भी मछुआ मछली पकड़ने नहीं जा सकता था। परियों का डर बना रहता था कि अगर हम काली नदी में मछली पकड़ने गये तो परियां हमें बर्बाद कर देगीं।
भानपुर में ही एक कालू नाम का मछुआ रहता था। उसके परिवार में उसकी एक सुन्दर पत्नी व एक बच्चा था। कालू बड़ा अहंकारी था, उसे अपनी पत्नी की सुन्दरता एवं अपनी ताकत पर घमण्ड था तथा वह काली नदी में ही मछली पकड़ने जाता। वह अपनी पत्नी को हर समय साथ रखता था किन्तु काली नदी पर नहीं ले जाता था।
एक दिन परियों ने मिलकर कालू को सबक सिखाने का निश्चय किया तथा एक बड़ा मगरमच्छ जादू का बनाकर काली नदी में छोड़ दिया। शांय को जब कालू लौट रहा था तो मगरमच्छ ने नाव रोक दी और कालू की तरफ मुँह फाड़कर खाने को लपका, कालू ने अपना भाला उठाया किन्तु मगरमच्छ के विशाल शरीर को देख हक्का बक्का हो गया उसका भाला ऊपर उठा का उठा रह गया। आज कालू सोच रहा था कि मैं काली नदी पर न आता तो अच्छा रहता।

यह मेरा गाँव नहीं है……….

गाँव ?

मौनू ने बस से उतरते ही देखा, अपने चारों तरफ, यह क्या हम दूसरी जगह आ गये यह तो नहीं है हमारा गाँव। नहीं, यह हमारा गाँव नहीं हो सकता। तभी पिताजी ने कहा,`देखो बेटे अपना गाँव कितना बदल गया है।´हमारा गाँव हाँ, हाँ, हमारा गाँव ही तो है। हमारे पिताजी हमें गाँव ही तो लाये हैं। कितने दिनों से हम इन्तजार कर रहे थे, गाँव आने के लिये, पिताजी जब भी गाँव जाने की बात करते, मैं फूला नहीं समाता। पिताजी ने उस दिन जैसे ही गाँव जाने की बात कही थी, मैं दौड़ता हुआ सर्वप्रथम माताजी के पास पहुँचा और कितनी प्रसन्नता से बताया था माताजी को कि हम गाँव जायेगें।

गाँव नाम सुनते ही मौनू का अंग अंग खुशी से झूम उठा। कैसा प्यारा गाव है उसका? वही बचपन वाला आम का पेड़ जिससे आम तोड़-तोड़ कर खाया करते थे सब बच्चे। कितने सारे मित्र थे मौनू के दीपक, शरद, रहीम, “याम और याद भी नहीं वह कितने बच्चे तालाब के किनारे जाकर खेलते थे, वह हरा-भरा बगीचा कितने सालों से नहीं देखा मौनू ने। वह गाँव में जाकर सबसे पहले बगीचे में ही जायेगा और जामुन के पेड़ पर चढ़ जायेगा।
मौनू जब सात वर्ष का ही तो था जब पिताजी की नौकरी लगी थी और वह पिताजी के साथ चला आया था। महीनों तो उसका मन ही नहीं लगा था शहर में शहरी चमक दमक को देखकर उसे आश्चर्य तो होता था किन्तु अच्छा नहीं लगा। लगता भी कैसे? दादी माँ को जो छोड़कर आया था। रामू दादा कितना प्यार करते थे उसे जब भी बाजार जाते उसके लिये अंगूर अवश्य लाते और कहते बेटा खूब खाया कर अंगूर, घी, दूध। शरीर बलवान होता है। शरीर बलवान होता है तो बुद्धि भी तेज होती है। बुद्धि से बुद्धिमान होते हैं। और मैं सब सुनता-2 अंगूरों को चट कर जाता। पीपल वाली ताई की बराबर तो शहर में आकर कभी मम्मी से भी प्यार नहीं मिला। जब स्कूल से लौटते समय उनके पास न जाता तो वह चिल्लातीं थीं। मारने दौड़ती थीं उन्हें चिढ़ाने में सचमुच कितना आनन्द आता था।
चलते-चलते गाँव दिखायी देने लगा था किन्तु रास्ते में उसे कहीं भी वह नीम का पेड़ नहीं दिखा जिस पर वह झूलते थे। पूँछने पर पापा ने बताया कि जिस सड़क पर हम चल रहें हैं उसके कारण वह काट दिया गया। यह सुनकर बड़ा दु:ख हुआ बचपन का लगाव जो था उससे। अपने घर पहुँचे तो बाहर टूटी चारपाई की जगह तख्त पड़ा था जिस पर बूढ़ी दादी माँ पड़ी थी। मौनू तो उन्हें पहचान भी नहीं पाया था। उन्होंने बड़े प्यार से मौनू के सिर पर हाथ फिराया।
शांय 4 बजे मौनू बचपन के मित्र दीपक के साथ गाँव में घूमने निकला तथा बगीचा में चलने को कहा । दीपक ने उदास होकर बताया कि बगीचा तो समाप्त हो गया उसकी जगह ताऊ ने भट्टा लगा दिया है जो धुआँ देता रहता है। रामू दादा का लड़का किसी सरकारी अफसर के घर काम करता है इसलिये उसने खेलने वाले मैदान पर भी कब्जा कर लिया है। पीपल वाली ताई के यहाँ गये तो वहाँ पीपल ही नहीं था। ताई ने बताया कि अब तो यहाँ शकरकन्द भी नहीं होती जमीन ही इस लायक नहीं रही तथा गाय भी बेच दी गयी है। यह सब सुनकर मौनू का दिल बैठा जा रहा था। बगीचा भी नहीं —– पीपल भी नहीं—- आम का पेड़ भी नहीं—- शकरकन्द भी नहीं—— शकरकन्द की खीर नहीं वह दुखी होकर चिल्लाने लगा ।यह मेरा गाँव नहीं है।

दहेज-पहला पति

दहेज-पहला पति

रमेश कार्यालय में काम करते-करते थक गया था। थकान भी स्वभाविक एवं नियमित होने वाली थी क्योंकि कार्यालय की आठ घन्टे की डयूटी थकान तो पैदा करेगी ही।
रमेश ने अपने दरवाजे पर आते ही घन्टी बजायी। वह काफी समय प्रतीक्षा करता रहा किन्तु अन्दर से कोई हलचल नहीं हुई। पुन: घन्टी बजाने पर उमा ने कहा, `पिछला दरवाजा खुला है, पीछे होकर आ जाओ। रमेश पीछे के दरवाजे में से होकर अन्दर पहुँचा तो उमा पलंग पर लेटी-2 पत्रिका पढ़ने में मशगूल थी मानो उसे रमेश के आने की जानकारी ही न हो।
रमेश ने कपड़े उतारे, जूतों के तस्मे खोलकर जूते उतार दिये एवं कपड़े पहनने के लिये कपड़े खोजकर बाथरूम में घुस गया। कपड़े बदलने के बाद पानी पीकर उमा के पास पहुँचा तो उसे देखकर उमा ने कहा, किचिन में खाना रखा है जाकर खालो। वह चुपचाप खाना खाने चला गया।
रमेश व उमा की शादी लगभग दो वर्ष पूर्व दिसम्बर में हुई थी। उमा के पिता ने रमेश के पिताजी को एक लाख रूपये नकद एवं अन्य भौतिक सुख-सुविधा का सामान दिया था। शादी के बाद से ही उमा ने कभी भी रमेश को महत्व नहीं दिया । प्रारम्भ में तो रमेश ने उमा की उदासीनता को उसका संकोच समझा था कि उसकी पत्नी का पहला पति होकर वह न होकर उसके पिता द्वारा दिया गया दहेज है।

दहेज की खूनी होली

दहेज की खूनी होली

गहन अंधकार है गहन! लगता है मेरी ज्योति ही कहीं खो गई है। अंधकार का साम्राज्य चारों ओर व्याप्त है। अन्दर अंधकार,बाहर अंधकार,रात्रि को अंधकार की संभावना की ही जा सकती है लेकिन यहाँ तो दिन में भी रात्रि का अंधकार ही व्याप्त है। चाँद रोशनी न दे पाये न सही किन्तु सूरज ही अंधकार बरसाने लगे तो उसके जीवन का मतलब ही क्या रह जाता है?सचमुच मेरे जीवन में अंधकार ही अंधकार है।
ज्योति की खोज में, मैं कहाँ-कहाँ नहीं भटका? दर-दर भटका, भटकता रहा, भटकते-भटकते भटकने के लक्ष्य से ही भटक गया किन्तु भटकने का अन्त नहीं आया। मुझे मेरी ज्योति नहीं मिलनी थी, नहीं मिली। मिली, हाँ, मिली। क्या वह ज्योति ही थी? नहीं-नहीं वह ज्योति नहीं थी, वह ज्योति हो ही नहीं सकती। ज्योति तो सदैव मुस्कराने वाली लड़की थी। उसके चेहरे पर तो सदैव ही मुस्कान सजती रहती थी। उसके चेहरे पर तो खोफ,पीड़ा और निरीहता के सिवा कुछ था ही नहीं। वह ज्योति कैसे हो सकती है। वह आई थी तो जीवन में प्रकाश का प्रतीक बनकर आई थी। उसकी चंचलता सभी की उदासी को दूर करती थी,खामोशी को तोड़ देती थी। वही ज्योति इस प्रकार गई कि जीवन में अंधकार के सिवा कुछ रह ही नहीं गया है। वह प्रकाश बनकर आई थी तथा अंधकार दे गई। वह प्रसन्नता बिखेरती आई थी,जाते-जाते उदासी दे गई। उत्साह,साहस व जोश जगाने वाली ज्योति दुख,निरीहता व कायरता देकर चली गई। अब लगता है मैं कभी भी कुछ नहीं कर सकता। मैं ज्योति के जीवन को नहीं बचा पाया। इसके बाद जीवन में रह ही क्या जाता है?
वही ज्योति जो कहती थी,भैया ज्योति तेरे साथ ही रहेगी। ज्याति कहीं भी तेरा साथ छोड़कर कहीं भी नहीं जायेगी, कभी भी नहीं जायेगी। वही ज्योति इस तरह चली जायेगी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। कितनी बाबरी बातें करती थी ज्योति। मैं कितना समझाता था उसे,`बाबरी है तू तो ज्योति। सभी को जाना होता हे एक ना एक दिन। तेरी शादी हो जायेगी और तू भी चली जायेगी अपनी ससुराल।´
वह रोने लगती,`नहीं, भैया। कहो ना भैया कि तुम कभी मुझे अपने से अलग नहीं करोगे। कभी भी कहीं नहीं भेजोगे………………..।´
होली से दो दिन पहले की ही तो बात है जब ज्योति का पत्र मिला था मुझे। हाँ, होली की तैयारियाँ चल रहीं थीं। छोटे भाई ने कई दिन से कह रखा था,`भैया होली पर खूब सारा रंग चाहिए मुझे। खूब सारा। और एक छोटी सी सुन्दर सी पिचकारी।´
वही सब लेने तो मैं बाजार जा रहा था। रास्ते में डाकिया मिल गया था। उसने रास्ते में ही दे दिया था वह पत्र। पत्र ही तो था। नहीं, वह पत्र नहीं, वह मेरी ज्योति की मौत का पैगाम था। वह पत्र ज्योति द्वारा ही लिखा गया था। ज्योति के हस्त-लेख को तो मैं लाखों में से पहचान सकता हूँ। कितना सुन्दर लिखती थी वह। ज्याति का ही तो था वह पत्र। जिसमें लिखा था……… क्या लिखा था? लिखा था,`मुझे तुम्हारी स्थिति मालुम है भैया! अत: और तो कुछ नहीं कह सकती। हाँ, इतना अवश्य बताना चाहती हूं कि शायद तेरी ज्योति को होली देखना नसीब न हो। होली नहीं देख पायेगी तेरी ज्याति। घर में जैसी परिस्थितियाँ पैदा की जा रही हैं। संभव है मैं होली तक जीवित न रह पाऊँ।´
पत्र को पढ़कर फूट-फूट कर रो पड़ा था मैं। आगे बाजार जाकर सामान खरीदकर लाने की हिम्मत ही नहीं रह गई थी मुझमें। दूसरे दिन ज्योति की ससुराल जाने का निर्णय कर, मैं घर वापस आ गया था।
`भैया…..भैया…. कल की होली है। मैं तो कुछ सुन ही नहीं रहा था। जैसे एक स्वप्न देख रहा था। नहीं…..नहीं…… नहीं होली नहीं आ सकती। नहीं, नहीं, मेरी ज्योति के सामने होली नहीं आ सकती। अपने आप पर से नियन्त्रण ही नहीं रह गया था। छोटा भाई खेलने जा चुका था। मैं ज्योति के यहाँ जाने की तैयारी करने लगा। उसी समय पड़ोस की एक लड़की आई जिसने बताया कि आपका फोन आया है। मैं अंजानी आशंका के साथ उसके साथ चाल पड़ा।
टेलीफोन पर ज्योति की पड़ोसन व सहेली राधा रूँआसी आवाज में बोल रही थी,`मैं राधा बोल रही हूँ। आप जल्दी से यहाँ आ जाइये। ज्योति अब इस दुनियाँ में नहीं रही। चुपके से शीध्रता में अंतिम संस्कार की तैयारी हो रही हैं तथा यह प्रचारित किया जा रहा है कि ज्योति की मृत्यु स्टोफ फटने से हुई है।´
मैं हक्का-बक्का रह गया,मस्तिश्क ने कार्य करना बन्द कर दिया था। मैं अपनी ज्योति को बचा नहीं पाया। अब शीध्रता से ज्योति की ससुराल पहँुचना था। मैं जितनी जल्दी कर सकता था,उतनी जल्दी चल पड़ा,किन्तु मैं उसके अंतिम दशZन भी न कर सका। मैं जब वहाँ पहुँचा उसकी चिता की आग ठण्डी हो चुकी थी। वहाँ सभी इस प्रकार का नाटक कर रहे थे, मानो वह कितने दुखी हैं।
मैंने कहाँ-कहाँ चक्कर नहीं लगाये ज्योति के हत्यारों को सजा दिलाने के लिए। थाने में तो रिपोर्ट लिखने की बजाय मुझे ही धमकाया गया। मैंने किस-किस कोर्ट के चक्कर नहीं लगाये किन्तु मुझे न्याय नहीं मिला। मैं ज्योति के हत्यारों को सजा नहीं दिलवा पाया। सारे सबूतों को मिटा दिया गया था तथा गवाहों को खरीद लिया गया था। मेरे लिए खूनी होली बनकर आई थी वह होली। जिसने मेरी ज्योति को ही लील लिया।

भारत स्वतन्त्र है ! हम नहीं !

भारत स्वतन्त्र है ! हम नहीं !

शायं साढ़े तीन बजे होगें। धूप कम होने लगी थी। घर में सभी अभी सो रहे थे। मैं बैठा-2 सोच रहा था कि क्या स्थिति होगी स्वतन्त्रता से पहले की, जब विदेशी लोग हमारे ऊपर शासन करते थे परतन्त्र थे हम। कुछ लोग जो उस समय के हैं उसके आधार पर कल्पना ही कर सकते हैं कि हमें कहाँ तक सफलता मिली। उस समय सब लोगों का एक मात्र उद्देश्य स्वराज्य प्राप्त करना था। आज हम स्वतन्त्र हैं। अचानक किसी ने दरवाजे पर दस्तक दी।
मैनें उठकर दरवाजा खोला सामने डाकिया डाक लेकर खड़ा था। वह एक पत्र देकर चला गया। मैं पत्र खोलकर पढ़ने लगा-
प्रिय मित्र,
प्रणाम !
सर्व सहित स्वस्थानन्द होगें ही। पिछला पत्र मिला आपने लिखा था कि हम स्वतन्त्र हैं। यह सौभाग्य का विशय है। किन्तु आप ही बताओ क्या आप स्वतन्त्रता से कुछ भी कर सकते हो? अपना परिश्रम देश की उन्नति में लगा सकते हो? क्या आज भी सत्ता पर विदेशी माइन्डेड व्यक्ति नहीं बैठे हैं?क्या सही कार्य करने वाले को ही नहीं दबाया जा रहा?भ्रष्टाचारी व षड्यंत्र करने वालों का ही बचाव नहीं किया जाता?
मित्रवर भारत स्वतन्त्र है हम नहीं।

आपका एक मित्र

आत्म हत्या

रो-रो के बुरा हाल था मीना का एक यही तो साधन था उसके पास अपने अन्त:करण से अपनी पीड़ा को निकालने का। अपने बोझ को हल्का करने का। दिन में तो इसके लिये भी समय नहीं था। पूरे दिन काम ही काम। सुबह तीन बजे उठना पूरे दिन काम करते रहना रात्रि 11 बजे तक काम करना । इस समय सब सो जाते थे। अत: रो-रोकर अपनी पीड़ा को हल्की करती और सो जाती यह उसकी प्रतिदिन की दिनचर्या बन गयी थी।
मीना काम से नहीं डरती थी काम तो कितना भी करना पड़े किन्तु थोड़ा सा प्यार तो मिले। फिर भी शरीर के लिये भोजन और विश्राम तो चाहिये ही। भोजन के नाम पर दोपहर दो बजे, बची खुची तीन चार रोटी सब्जी तो कभी बचती ही न थी तथा रात्रि को साढ़े दस बजे बची खुची एक दो रोटी। विश्राम के नाम पर 20 घण्टे काम करना तथा बात बात पर सभी की डाँट। माताजी (सास) तो सदैव डाँटती रहती है बड़ी धीरे-2 काम कर रही है तुझे महारानी की तरह बिठालूँगी तेरे बाप ने तेरे लिये बहुत सारा धन जो दिया है।
मीना के सभी सुनहले सपने चूर-चूर हो गये पिता की गरीबी के कारण। दहेज न लाने पर ही तो उसे इतना सताया जाता है। आखिर उसकी देवरानी भी तो है उसको कोई नहीं डाँटता उससे कोई नहीं कहता काम करने की। आखिर वह अपने माय के से दहेज जो लायी है। पूरे दिन सज धज कर घूमती रहती है व्यक्तिगत काम भी उसी से करवाती है। पिताजी ने दहेज नहीं दिया तो क्या गलती है आखिर मीना की। कितने परिश्रम से पढ़ाई की उसने। कितना प्रयास करती है अपने सास ससुर को प्रसन्न करने का। किन्तु वह तो दहेज के नाम पर डाँटते रहते हैं। क्या उपाय है इससे बचने का? क्या चारा है? सभी कुछ समाप्त हो गये सपने। एक ही उपाय बचा है करने के लिये आत्महत्या !